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१२८ • जैनसाहित्यका इतिहास
प्रकृतिनिक्षेपके चार प्रकार है-नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ॥४॥ इनमेंसे नैगम, सग्रह और व्यवहारनय सवको स्वीकार करते है ॥६॥ ऋजुसूत्रनय स्थापनाप्रकृतिको नही चाहता ॥७॥ शब्दनय नामप्रकृति और भावप्रकृतिको स्वीकार करता है ॥८॥ जिस जीव या अजीवका 'प्रकृति' नाम किया जाता है वह नामप्रकृति है ॥९॥ काण्ठकर्म, चित्रकर्म आदिमें 'यह प्रकृति है ऐसी स्थापनाको प्रकृति कहते है ॥१०॥ द्रव्यप्रकृतिके दो भेद है-आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति ॥११॥ आगमद्रव्यप्रकृतिके अर्थाधिकार इस प्रकार है-स्थित, जित, परिजित, वाचनोगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रथसम, नामसम और घोपसम ।।१२।।
वेदनाखण्डके कृति अनुयोगद्वारमे भी इन सबका कथन आ चुका है ।
नोआगमद्रव्य प्रकृतिके दो प्रकार है- कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति ॥१५॥ घट, थाली, सकोरा, अरजण और उलु चण आदि विविध भाजनविशेषोकी मिट्टी प्रकृति है । धान 'तप्पण' ( तर्पण) आदि की जौ और गेहूँ प्रकृति है । सव' नोकर्मप्रकृति है ।।१८।। कर्मप्रकृतिके ज्ञानावरणादि आठ भेद है ॥१९। और ज्ञानावरणीयके आभिनिवोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय आदि पाच भेद
है
यके आभिनिवोतिके ज्ञानावरण
पहले कहा है कि जितने ज्ञानके भेद है उतनी ही ज्ञानको आवृत करनेवाले ज्ञानावरणीयकर्मकी प्रकृतियाँ है । इस प्रकृतिअनुयोगद्वारमें सूत्रकारने ज्ञानके भेदोका आलम्बन लेकर ज्ञानावरणकर्मकी प्रकृतियोका कथन किया है । यथाआभिनिवोधिकज्ञानावरणीय कर्मके चार, चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेद जानने चाहिये ॥२२॥ अवग्रहावरणीय, ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय ये चार भेद है ॥२३॥ अवग्रहावरणीय कर्मके दो भेद है-अर्थावग्रहावरणीय, और व्यञ्जनावग्रहावरणीय ॥२४॥ व्यञ्जनावग्रह केवल चार इन्द्रियोसे होता है, अत व्यञ्जनावग्रहावरणीय कर्मके भी चार भेद है। अर्थावग्रह पाँचो इन्द्रियो और मनसे होता है, अत अर्थावग्रहावरणीय कर्मके छै भेद है । इसी तरह ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय कर्मोके भी छ-छै भेद होते है, क्योकि ये चारो ज्ञान इन्द्रियो और मनसे उत्पन्न होते है ।
उक्त चारो ज्ञानोको छहो इन्द्रियोसे गुणा करने पर मतिज्ञानके चौबीस भेद होते है और उनके आवरण भी २४ ही होते है। इन चोवीस भेदोमें जिह्वा, स्पर्शन, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय सम्बन्धी चार व्यञ्जनावग्रहोके मिलानेपर आभिनिवोधिक
१ 'घडपिढरसरावारजणोलु चणादीण विविहभायणविसेमाण मट्टिया पयडी, धाणतप्पणादीण
च जवगोधूमा पयटी, मा सव्वा णोकम्मपयटी णाम ॥१८॥-पु १३, ५ २०४-२०५ ।