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छक्खडागम १२७ पृथ्वी पर नत होना तीसरा नमस्कार है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन नमस्कार होते है ।।
सब क्रियाकर्मोमें चार बार सिर नमाया जाता है। सामायिकके आदिमें, फिर उसके अन्तमें, फिर 'त्योस्सामि' दण्डकके आदिमें और फिर अन्तमे । इस प्रकार एक क्रियाकर्ममें चार बार सिर नमाया जाता है।
सामायिक और 'त्थोस्सामि' दण्डकके आदि और अन्तम मन-वचन-कायकी विशुद्धिके परावर्तनके बारह बार होते है। इसलिये एक क्रियाकर्म बारह आवर्तोसे युक्त होता है । यह सव क्रियाकर्म है।
कर्मप्राभृतका जो ज्ञाता उसमें उपयुक्त होता है उसे भावकर्म कहते है ।
कर्मके इन भेदोमेसे यहाँ समवदानकर्मसे प्रयोजन है, क्योकि कर्म अनुयोगद्वारमें समवदानकर्मका ही विस्तारसे कथन किया है । ___ इस अनुयोगद्वारमें ३१ सूत्र' है । ३१वें सूत्रकी धवलाटीकामें श्रीवीरसेनस्वामीने लिखा है कि 'मूलतत्रमें तो प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध कर्म, ईर्यापथकर्म, तप कर्म और क्रियाकर्म प्रधान है, क्योकि वहां इनका विस्तारसे कथन है ।
यहाँ इन छै कर्मोको आधार मानकर सत्, द्रव्य, क्षेत्र, काल, स्पर्शन, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व अनुयोगोके द्वारा कथन करते है। तदनुसार लगभग सौ पृष्ठोमें उन्होने विस्तारसे कथन किया है । __ सूत्रकार भूतबलिने तो कर्मानुयोगद्वारमें ममवदानकर्मसे ही प्रयोजन बतलाया है । इसलिए मूलतत्रसे अभिप्राय महाकर्मप्रकृतिप्राभृतसे जान पडता है। उसके अन्तर्गत कर्मानुयागद्वारमें उक्त छै कर्मोका वर्णन रहा होगा । प्रकृति अनुयोगद्वार
प्रकृति अनुयोगद्वारके अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है- प्रकृतिनिक्षेप, प्रकृतिनयविभापणता, प्रकृतिनामविधान, प्रकृतिद्रव्यविधान, प्रकृतिक्षेत्रविधान, प्रकृतिकालविधान, प्रकृतिभावविधान, प्रकृतिप्रत्ययविधान, प्रकृतिस्वामित्वविधान, प्रकृतिप्रकृतिविधान,प्रकृतिगतिविधान, प्रकृतिअन्तरविधान, प्रकृतिसन्निकर्षविधान, प्रकृतिपरिमाणविधान, प्रकृतिभागविधान और प्रकृतिअल्पबहुत्वविधान ॥२॥
१, 'एदेमि कम्माण केण कम्मेण पयद ? समोदाणकम्मेण पयद ॥३२॥
(धव)-कुदो कम्माणियोगद्दारम्मि समोदाणकम्मस्व वित्थरेण परूविदत्तादो। .. मूलतत्रे पुण पयोगकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्मा
णि पहाण तत्य वित्यारेण परूविदत्तादो-पटख०, पु० १३, पृ० ९० । २, वही, पु० १३, पृ० १९७ से।