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१२६ : जैनसाहित्यका इतिहास
जिस जीव या अजीवका कर्म नाम रखा जाता है, वह नामकर्म है ॥१०॥ काष्ठकर्म, चित्रकर्म आदिमे यह कर्म है, इस प्रकारकी स्थापनाको स्थापनाकर्म कहते है ॥१२॥ जो द्रव्य अपनी-अपनी स्वाभाविक क्रियारूपसे निष्पन्न है वह सब द्रव्यकर्म है, जैसे जीवद्रव्यका ज्ञानादिरूपसे परिणमन और पुद्गलद्रव्यका रूप-रसादिरूपसे परिणमन उनकी स्वाभाविक क्रिया है।
प्रयोगकर्मके तीन भेद है--मन प्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और वायप्रयोगकर्म ॥१६॥ यह प्रयोगकर्म ससारदशामे वर्तमान पहलेसे बारहवे गुणस्थान तकके जीवोके तथा तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली जीवोके होता है ॥१७॥ ___ कार्मणपुद्गलोका मिथ्यात्व, असयम, योग और कषायके निमित्तसे आठकर्मरूप, सातकर्मरूप या छहकर्मरूप भेद करना समवदानकर्म है ॥२०॥ ____ जो उपद्रावण (उपद्रव करना), विद्रावण (अगछेदन आदि करना), परितापन (सन्ताप उत्पन्न करना) और आरम्भ (प्राणियोके प्राणोका घात करना) रूप कार्यसे निष्पन्न होता है वह अध कर्म है ।।२२।। ।
ईर्याका अर्थ योग है। योगमात्रसे जो कर्म वधता है वह ईर्यापथकर्म है । वह छद्मस्थ वीतरागोके और सयोगकेवलियोके होता है। धवलाटीकामें इसका विवेचन थोडा विस्तारसे किया है ।
वारह प्रकारके अभ्यन्तर और बाह्य तपको तप कर्म कहते है ॥२६॥ धवलाटीकामें तपोका विस्तृत वर्णन है ।
आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना, तीन बार नमस्कार, चार वार सिर नवाना और बारह आवर्त यह सब क्रियाकर्म है ।।२८।।
अर्थात् ये क्रियाकर्मके छै प्रकार है। क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना चाहिये, पराधीन नही । वन्दना करते समय गुरु, जिन और जिनालयकी प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है। तीनो सन्ध्याकालोमें वन्दनाका नियम करनेके लिये तीन बार करना कहा है ।
पैर धोकर शुद्ध मनसे जिनेन्द्रदेवके दर्शनसे उत्पन्न हुए हर्षसे पुलकितवदन होकर जिनेन्द्रके आगे नमना प्रथम नमस्कार है । पुन उठकर विनन्ति करके नमना दूसरा नमस्कार है। फिर उठकर सामायिक दण्डकके द्वारा गात्मशुद्धि करके कषायसहित कायका उत्सर्ग करके, जिनके अनन्तगुणोका ध्यान करके, चौवीस तीर्थद्वरोकी वन्दना करके, फिर जिन, जिनालय और गुरुकी स्तुति करके
१ पट्ख०, पु० १३, पृ० ४८-५४ । २ वही, पु० १३, ५४-८८ ।