________________
छक्खडागम ९७
अभिप्राय यह है कि किस-किस गुणरयानमें कौन-कौन कर्म वन्धते है और आगे नही बंधते, यह कथन करते है। __ इसपर सूत्र ४ की धवलाटीकामें यह शका उठाई है कि यदि इसमें जीवसमासोके प्रकृतिवन्धव्युच्छेदका ही कथन करना है, तो इस ग्रन्थका वन्धम्वामित्वविचय नाम कैसे घटित होगा। समाधानमे कहा गया है कि 'इस गुणस्थानमें इतनी प्रकृतियोके बन्धका विच्छेद होता है' ऐसा कहनेपर यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि उससे नीचेके गुणस्थान उन प्रकृतियोके बन्धके स्वामी है । अत इस ग्रन्थका वन्धस्वामित्वविचय नाम सार्थक है।
सूत्र ५मे कहा है-'पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पाच अन्तराय, इन कर्मोका कौन बन्धक है, कोन अवन्धक है।' सूत्र ६ में उत्तर दिया गया है-मिथ्यादृष्टिस लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकसयत तक उक्त प्रकृतियोके बन्धक है । अत दमवें गुणस्थान तकके जीव उक्त कर्मोके वन्धक है, शेप अवन्धक है। इस तरह कर्मप्रकृतियोका निर्देश करते हुए पहले प्रश्न किया गया है और आगे उसका उत्तर दिया गया है कि अमुक कर्मोके वन्धक अमुक गुणस्थान वाले जीव है ।
इसप्रकार प्रारम्भके ४२ सूत्रोमें तो गुणस्थानोके अनुसार बन्ध और अवन्धका कथन है । तत्पश्चात् मार्गणाओके अनुसार कथन है ।
सूत्र ३९में यह प्रश्न किया गया है कि कितने कारणोसे जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मको बांधते है ? सूत्र ४०में उत्तर दिया गया है कि इन सोलह कारणोसे जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मको बांधते है । और सूत्र ४१में उन १६ कारणोके नाम बतलाये है जो इसप्रकार है
१ दर्शनविशुद्धता', २ विनयसम्पन्नता, ३. शीलवतोमै निरतिचारता, ४ छह आवश्यकोमें अपरिहीनता, ५ क्षणलवप्रतिबोधनता, ६ लब्धिसवेगसम्पन्नता, ७ यथाशक्ति तप, ८ साधुओकी प्रासुकपरित्यागता, ९ साधुओकी ममाधिसधारणा, १० साधुओकी वैयावृत्ययोगयुक्तता, ११ अरहतभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ प्रवचनवत्सलता, १५ प्रवचनप्रभावना, १. 'दसणविसुज्झदाए विणयमपण्णदाए मीलन्वदेसु गिरदिचारदाए आवासण्सु अपरि
हीणदाए मणलवपटिबुज्मणदाए लद्विसवेगसपण्णदाए जधाथामे तथा तवे साहूण पासु. अपरिचागदार माहूण समाहिसधारणाए माहूण वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खण अभिक्खण णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोद कम्म वर्धति ।। १ ।।–पटख०, पु० ८, पृ० ७° ।