________________
९८. जनसाहित्यका इतिहास १६. अभीक्ष्णमभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता । इन सोलह कारणोसे जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मको बाँधते है। ___ तत्त्वार्थसूत्रमें जो तीर्थकरनामकर्मके बन्धके सोलह कारण बतलाये है, उनमें इनसे कुछ अन्तर है । यहाँ 'साधुओकी प्रासुक परित्यागता है, तत्त्वार्थसूत्रमें 'शक्ति अनुसार त्याग' है। इन दोनोका आशय मिलता हुआ है। किन्तु यहाँ 'लब्धिसवेगसम्पन्नता' है, त० सू० में आचार्यभक्ति है। शेष चौदह कारण समान है । इन दोनोमें कोई मेल नही है ।
किन्तु श्वेताम्बरीय ज्ञाता धर्मकथा नामक आठवे अगमें २० कारण बतलाये है-१ अरहत, २ सिद्ध, ३ प्रवचन, ४ गुरु, ५ स्थविर, ६ बहुश्रुत और ७ तपस्वियोमें वत्सलता, ८ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ९, दर्शन, १० विनय, ११. आवश्यक, १२. निरतिचार शीलवत, १३ क्षणलव, १४ तप, १५ त्याग, १६ वैयावृत्य, १७ समाधि, १८ अपूर्व ज्ञानग्रहण, १० श्रुतभक्ति, २० प्रवचनप्रभावना।
इस अन्तरके सम्बन्धमें विशेष चर्चा तत्त्वार्थसूत्र सम्बन्धी प्रकरणमें की जायेगी।
बम्धस्वामित्वविचयकी सूत्रसख्या ३२४ है ।
श्वेताम्बर परम्पराके तीसरे कर्मग्रन्थका नाम बन्धस्वामित्व है। कर्मग्रन्थ प्राचीन और नवीनके भेदसे दो प्रकारके है। दोनोका विषय प्राय समान है। प्राचीनमे विपय-वर्णन थोडा विस्तृत है। तीसरे प्राचीन कर्मग्रन्थकी गाथासख्या ५४ है जवकि नवीनकी गाथासख्या २५ है। प्राचीनमे गति आदि मार्गणामोमे गुणस्थानोकी सख्याका निर्देश अलगसे करके तब बन्धस्वामित्वका कथन है किन्तु नवीनमें ऐसा नही किया है। उसमें जो मार्गणाओके आश्रयसे गुणस्थानोमें वन्धस्वामित्वका कथन दिखाया, उससे मार्गणाओमें गुणस्थानोकी सख्याका बोध हो जाता है।
१ 'दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णशानोपयोगसवेगौ शक्तितम्त्या
गतपसी साधुममाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यवहुश्रुतप्रवचनक्तिरावश्यकापरिहाणि
निप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।।'-न० म०, ६।२४।। • 'अरहतमिद्धपवयणगुरुथेरबहुम्सुएसु वच्छलयाव तवस्सी तेमि अभिक्पणाणोयओगे य ।। दसण विणए आरास्सए य सोलन्यए निरडयार । खणलव तव चियाए वेयावच्चे
समाही य॥ अपुवणाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एहि कारणेहिं तित्थयरत्त लहद जीवो ।।
--शा० ध०, अ०८. सू० ६४