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९६ जैनसाहित्यका इतिहास
इस सूत्र की धवला - टीकामें इसका उद्गम बतलाते हुए लिया है कि कृति, वेदना आदि चीबीग अनुयोगद्वारोगे बन्धन नामक जो छठा अनुयोगद्वार है वह चार प्रकार है- वन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध- विधान । उनमें बन्ध नामक अधिकारaa की अपेक्षा जीव और कर्मो के सम्बन्धका कथन करता है । बन्धक अधिकार ग्यारह अनुयोगद्वारोसे बन्धकोका कथन करता है । बन्धनीय नामक अधिकार तेईस वर्गणाओमे बन्ध योग्य और अबन्ध योग्य पुद्गल द्रव्यका कथन करता है । बन्धविधानके चार भेद है - प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेगवन्च | उनमे प्रकृतिबन्धके दो भेद है-- मूलप्रकृतिवन्न और उत्तरप्रकृतिबन्ध | मूलप्रकृतिबन्ध के दो भेद है- एक मूलप्रकृतिबन्ध और अयोगार मूलप्रकृतिवन्ध । अग्वोगाढ मूलप्रकृतिबन्धके दो भेद है -- गुजगारवन्न और प्रकृतिस्थानवन्ध | उनमे उत्तरप्रकृतिबन्धका गमुत्कीर्तन करनेवाले चौबोग अनुयोगद्वार है । उनमें से एक वन्धस्वामित्व नामक अनुयोगद्वार है । उसीका नाम वन्धस्वामित्वविचय हूं ।'
मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योगोके द्वारा जो जीव और कमोंका सम्बन्त्रविशेष होता है उसे वन्ध कहते है । और बन्धके स्वामित्वको बन्वस्वामित्व कहते है । और वन्वस्वामित्वके विचारको बन्धस्वामित्वविचय कहते है । विचय, विचारणा, मीमासा, परीक्षा ये सब शब्द समानार्थक है । अत यहाँ यह विचार किया गया है कि किस-किस गुणस्थान और मार्गणास्थान में किस -किम कर्मका वन्ध होता है । तदनुसार दूसरे सूत्रमें कहा है कि ओघको अपेक्षा वन्धस्वामित्वविचयके विषय में चौदह जीव समास ( गुणस्थान) जानने योग्य है । और तीसरे सूत्रके द्वारा चौदह गुणस्थानो के नाम वतलाये है ।
चौदह गुणस्थानोके नाम जीवद्वाणकी मत्प्ररूपणाके प्रारम्भमें आ चुके है । अत धवला टीकामें यह शका की गई है कि जीवसमास तो पहले ही हमने जान लिये है फिर यहाँ उनका कथन क्यो किया है ? इसका समाधान करते हुए धवलाकारने कहा है--- विस्मरणशील शिष्योके स्मरण करानेके लिये पुन कथन किया है । किन्तु सूत्रकारने प्रत्येक खण्डको यथासभव स्वतंत्र ग्रन्थके रूपमे निवद्ध किया है, ऐसा प्रतीत होता है । तथा उनका यह भी आशय रहा है कि जहाँ तक सम्भव हो कोई बात अस्पष्ट न रहे । इससे भी उन्होने पुनरुक्तिका दोष नही माना है ।
चौथे सूत्रमें कहा है कि इन चौदह जीवसमासोके प्रकृतिबन्धव्युच्छेदका कथन करना चाहिये ।
किसी कर्मप्रकृतिके बन्धके रुकनेको प्रकृतिवन्धभ्युच्छेद कहते है । सूत्रका