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________________ छक्खडागम ९५ अन्तमै महादण्डक नामक अधिकार है । इसके प्रथम' सूत्रमे कहा है-- 'इमसे आगे सर्वजीवोमें महादण्डक करना योग्य है ।' इस प्रथम सूत्रकी धवला-टीकामे इम महादण्डक अधिकारको लेकर जो शका-समाधान किया गया है उसे यहाँ दे देना उचित होगा । उममे च्लिका और महादण्डकका भेद स्पष्ट होता है। शका-ग्यारह अनुयोगद्वारोके ममाप्त होनेपर यह महादण्डक किमलिये कहा है ? समाधान -- ग्यारह अनुगेगदारोमै निवद्ध खुद्दावन्धकी चूलिका रूपसे महादण्डकको कहते है। शका-चूलिका किसे कहते है ? ममाधान-ग्यारह अनुयोगद्वारोमे सूचित अर्थका विशेष रूपसे कथन करनेको चूलिका कहते है। __ शका-यदि ऐमा है तो यह महादण्डक चूलिका नही कहा जा सकता। क्योकि यह अल्पवहुत्वानुगम अनुयोगद्वारसे सूचित अर्थको ही कहता है, अन्य अनुयोगदारोमें कहे गये अर्थको नहीं कहता ? ___समाधान-ऐसा कोई नियम नही है कि सब अनुयोगोके द्वारा सूचित अर्थोका विशेषरूप कथन करनेवाली ही चूलिका होती है। किन्तु एक, दो अथवा सब अनुयोगदागेसे सूचित अर्थोकी विशेष प्ररूपणाको चूलिका कहते है । अत यह महादण्डक चूलिका ही है क्योकि यह अल्पबहुत्वानुगम अनुयोगद्वारसे सूचित अर्थका विशेपरूपसे कथन करता है। इस प्रकार इस दूसरे खण्डके सूत्रोकी कुल संख्या अनुयोगद्वारोके क्रमसे ४३ + ९१ + २१६ + १५१ + २३ + १७१ + १२४ + २७९ + ५५ + ६८+ ८८+ २०५ + ७९ - ३ बन्धस्वामित्वविचय षट्खण्डागमके तीसरे खण्डका नाम वन्धस्वामित्वविचय है। इसका प्रथम ____ 'जो सो बधसामित्त विचओ णाम तस्स इमो दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ॥१॥' वह जो बन्धस्वामित्वविचय नामक (खण्ड) है उमका यह निर्देश दो प्रकार है-ओघसे और आदेशसे । १ 'तो मव्वजीवेसु महादण्डओ कादवो भवदि' ॥१॥-पटख०, पु० ७, पृ० ५७५ । २ पटख०, पु०८॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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