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छक्खडागम ८९ के नारकियोको छोडकर शेप नारकियोके वधनेवाली प्रकृतियाँ वतलाई है । इसमें भी दो ही सूत्र है।
५ तीसरे महादण्डकमें सातवी पृथिवीके नारकीके प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होनेपर बधनेवाली प्रकृतियाँ गिनाई है। इसमें भी केवल दो सूत्र है । इस तरह इन तीन महादण्डकोके रूपमें तीन चूलिकायें समाप्त होती है । सूत्रकारने क्यो एक-एक सूत्रका एक-एक महादण्डक बनाया है और क्यो उसकी महादण्डक सज्ञा रखी है, यह जिज्ञासा होना सहज है। जैन परम्परामें सिद्धान्तग्रन्थोके अशविशेषके लिये दण्डक या महादण्डक शब्दका भी व्यवहार होता था। सभव है जिस स्थानसे ये दण्डक लिये गये है वह महादण्डक नामसे अभिहित हो और वही नाम इन एक-एक सूत्र वाले दण्डकोको दे दिया हो।
६ उत्कृष्टस्थिति चूलिका-इसमें कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका कथन है । इस चूलिकाके प्रथमसूत्र में कहा है कि आरम्भिक सूत्रमें जो प्रश्न किये गये थे उनमें एक प्रश्न था 'कितनी स्थितिवाले कर्मोके होनेपर मम्यक्त्वको प्राप्त करता है अथवा नही प्राप्त करता है।' इसमेंसे 'नही प्राप्त करता है' इस पदकी विभापा करते है । उसी विभापाके लिए कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका विवेचन किया गया है । उसमें बतलाया है कि किन-किन कर्मोंका उत्कृष्ट बन्धकाल कितना होता है । और उनमें कितना आवाधाकाल होता है । बन्धके पश्चात् जब तक कर्म अपना फल नहीं देता, उतने कालको आवाधाकाल कहते है । आवाधाकाल वीतनेपर कर्मका उदय प्रारम्भ होता है और स्थितिकालके पूरा होने तक उदय होता रहता है। इस चूलिकामें ४४ सूत्र है । ___७ जघन्यस्थिति चूलिका-इस चूलिकामे कर्मोकी जघन्य स्थिति और उसका आवाधाकाल बतलाया है। इसमें ४३ सूत्र है ।
८ सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका-इस चूलिकामें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका विवेचन करते हुए कहा है कि सब कर्मोकी जब अन्त कोडाकोडी सागर प्रमाण स्थितिको बाँधता है तब यह जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है ।। ३ ।। प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय सज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक
और सर्वविशुद्ध होता है ॥ ४ ॥ जब इन सब कर्मोंकी अन्त'कोडाकोडी सागरप्रमाण स्थितिको सख्यात हजार सागर काल हीन कर देता है । तब प्रथमोपशम
१ 'तत्थ इमो तदिओ महादण्डओ कादन्वो भवदि ॥ १॥-१० १४२ । • 'एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकपूक्तम्-त वा ४-२६-५ । ३ 'केवडि कालटिठदीहि कम्मेहि सम्मत्त लन्भदि वा ण लब्भदि वा, ण लव्मदि ति
विभासा ॥१॥ एतो उक्कस्सयटिदि वण्णहस्सामो।'-पु० ६, पृ० १४५ ।