________________
८८ जैनसाहित्यका इतिहास जीवोके ही होता है । सज्वलन क्रोध, मान, माया, लोग और पुरुपवेद इन पांच प्रकृतियोका बन्ध एक साथ होता है। इनमेसे पुम्पवेदक गिवाय गेप चारका, कोवसज्वलनको छोउकर शेप तीनका, संज्वलग मानको छोउकर गेप दोका और सज्वलन मायाको छोडकर शेप एक प्रकृतिका बन्ध भी गयमीफे ही होता है।
५ आयुकर्मक' चार भेद है । उनमेंसे नरकायुका बन्ध पहले, गुणस्थानम, तिर्यञ्चायुका बन्ध पहले और दूसरेमें, मनुष्यायुका वन्ध पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानमे और देवायुका वन्ध ऊपर काहे छहो बन्यकोफे होता है।
६ नामकर्मक माठ बन्धस्थान है-इकतीस, तीस, उनतीस, अट्टाईम, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और एक प्रकृतिक स्थान । इन स्थानीय बन्धकोका वर्णन बहुत विस्तृत है।
७ गोनकर्मको दो प्रकृतियोमेसे एक ममयमे एक जीवके एकका ही बन्ध होता है। नीचगोत्रका बन्ध केवल पहले और दूसरे गुणस्थानमें होता है और उच्चगोत्रका वन्ध उपत छहो वन्धकोके होता है।
८. अन्तरायकर्मकी पांचो प्रकृतिर्या एक साथ बघती है और सामान्यतया उक्त छहो बन्धक उनका बन्ध करते है
इस तरह दूसरी चूलिकामें आठो को बन्धस्यानोका कथन है । इसीसे उमका नाम स्थानसमुत्कीर्तन है। इसमें ११७ सून है ।
३ तीसरी चूलिकाका नाम प्रथम महादण्डक है । इसके प्रथमसूत्रके द्वारा सूत्रकारने कहा है-अब प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुस जीव जिन प्रकृतियोको बाँधता है उन प्रकृतियोको कहो । अर्थात् जब कोई मिथ्यादृष्टी जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख होता है तो वह किन-किन कर्मप्रकृतियोका बन्च करता है ? प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुस सज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारकी हो सकते है। प्रथम महादण्डकमे एकसूत्रके द्वारा प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सज्ञी तिर्यञ्च और मनुष्यके बंधनेवाली प्रकृतियां बतलाई है। इसमें केवल दो सूत्र है ।
४ दूसरे महादण्डकमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख देव और सातवें नरक
१. पटव०, पु० ६, पृ० ९९ । २ वही, १०१०१। ३ वही, पृ० १३१ । ४ वही, पृ० १३० । ५ 'इदाणि पढमसम्मत्ताभिमुहो जाओ पयडीओ यदि ताओ पाणीओ कित्तऽस्सामो ॥१॥
-वही, पृ० १३३ । ६ 'तत्थ इमो विदिओ महादण्डओ कादवो भवदि ॥ १ ॥ वही, पृ. १४० ॥