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महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
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अन्तिम अंश इह-भारह-पुराणु सुपसिद्धउ
मिचरिय-हरिवंसाइद्धउ । वीरजिगसें भवियहो अक्खिउ पच्छई गोयमसामिण रक्खिउ । सोहम्में पुणु जंबूसामें विण्हुकुमार दिग्गयगामें । पंदिमित्त अवरजियणाहे गोवद्धणेण सुभद्दहवाहें। एम परंपराइं अणुलग्गउ
आयरियह मुहाउ आवग्गउ । सुणि संखेवसुत्तु अवहारिउ विउसे सयंभे महि वित्थारिउ । पद्धडिया-छंदें सुमणोहरु
भवियण-जण-मण-सवण-सुहंकरु । जसपरिसेसिकविहिं जं सुण्णउ ते तिहुवण-सयंभु किउ पुण्ण उ । तासु पुत्ते पिउ-भरणिव्वाहिउ पिय-जसु णिय-जसु भुवणे पसाहिउ ! गय तिहुयणसयंभु सुरठाणहो जं उव्वरिउ कि पि सुणियाणहो । तं जसकित्ति-मुणिहि उद्धरियउ णिएवि सुत्तु हरिवंसच्छरियउ । णिय-गुरु-सिरि-गुणकित्ति-पसाएं कि उ परिपुण्णु मणहो अणुराएं । सरहसेणेदं (?) सेठि-आएसे कुमर-णयरि आवि उ सविसेसें । गोवगिरिहे समीवे विसालए पणियारहे जिणवर-चेयालए । सावयजणहो पुरउ वक्खाणि उ दिड मिच्छत्तु मोहु अवमाणिउ । जं अमुणंतें इह मई साहिउ तं सुयदेवि खमउ अवराहउ । णंदउ सासणु सम्मइणाहहो णंद उ भवियण कय-उच्छाहहो । णंदण णरवइ पय-पालंतहो णंद उ दयधम्मु वि अरहंतहो । कालं वि य णिच्च परिसक्क उ कासु वि धणु कणु दिंतु ण थक्कउ । भद्दवमासि विणासिय-भवकलि हुउ परिपुण्णु चउद्दसि णिम्मलि । घत्ता--इय चउविह संघहं, विहुणिय-विग्घहं, णिण्णासिय-भव-जर-मरणु ।
जसकित्ति-पयासणु, अखिलय-सासणु, पयडउ संति सयंभु जिणु ॥१७॥ इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-उन्वीरए । तिहुवण-सयंभु-रइए समाणियं कण्हकित्तिहरिवंसं ॥
१ बम्बईके ऐ० पन्नालाल सरस्वती-भवनकी प्रतिमें यह एक चरण और आगेके तीन चरण अधिक हैं । इससे सम्बन्ध ठीक बैठ जाता है । ये चारों चरण पूनेकी और प्रो० हीरालालजीकी प्रतिमें नहीं है । २ बम्बईकी प्रतिमें यह और आगेकी पंक्ति नहीं है।