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महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
कविराज स्वयंभुदेवने तो अपनी समझसे ये ग्रन्थ पूरे ही रचे थे परन्तु उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभुको उनमें कुछ कमी महसूस हुई और उस कमीको उन्होंने अपनी तरफसे कई नये नये सर्ग जोड़कर पूरा किया ।
जिस तरह महाकवि पुष्पदन्तके यशोधर चरितमें राजा और कौलका प्रसंग, यशोधरका विवाह और भवान्तरोंका वर्णन नहीं था और इस कमी को महसूस करके वसिलसाहु नामक धनीके कहने से गन्धर्व कविने उक्त तीन प्रकरण अपनी तरफसे बनाकर यशोधरचरितमें जोड़ दिये थे कविराज चक्रवर्तीने भी उक्त तीनों ग्रन्थोंकी पूर्ति लगभग उसी तरह की है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि गन्धर्वने उक्त प्रयत्न पुष्पदन्तसे लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष बाद किया था, परन्तु त्रिभुवन स्वयंभुने पिताके देहान्त के बाद तत्काल ही । १- पउमचरिउ
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यह ग्रन्थ १२ हजार श्लोकप्रमाण है और इसमें सब मिलाकर ९० सन्धियाँ हैं—विद्याधरकाण्ड में २०, अयोध्या काण्डमें २२, सुन्दर कांड में १४, युद्धकांडमें २१ और उत्तरकांड में १३२ । इनमें से ८३ सन्धियाँ स्वयंभुदेवकी और शेष ७ त्रिभुवन स्वयंभुकी हैं । ८३ वीं सन्धिके अन्तकी पुष्पिकामें भी यद्यपि त्रिभुवन स्वयंभुका नाम है, इस लिए स्वयंभुदेवकी रची हुई ८२ ही सन्धियाँ होनी चाहिए परन्तु ग्रन्थान्त में त्रिभुवनने अपनी रामकथा - कन्याको सप्त महासगगी या सातसगवाली कहा है, इसलिए ८४ से ९० तक सात सन्धियाँ ही उनकी बनाई जान पड़ती हैं। संभव है ८३ वीं सन्धिका अपनी आगेकी ८४ वीं सन्धिसे ठीक सन्दर्भ बिठाने के लिए उसमें भी उन्हें कुछ कड़वक जोड़ने पड़े हों और इसलिए उसकी पुष्पिकामें भी अपना नाम दे दिया हो ।
१ देखो ' महाकवि पुष्पदन्त ' शीर्षक लेख, पृ० ३३१-३२ ।
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२ देखो पउमचरिउके अन्तके ।
३-४ अपभ्रंश काव्योंमें सर्गकी जगह प्रायः 'सन्धि'का व्यवहार किया जाता है । प्रत्येक सन्धिमें अनेक कड़वक होते हैं और एक कड़वक आठ यमकोंका तथा एक यमक दो पदोंका होता है । एक पदमें यदि वह पद्धड़ियाबद्ध हो तो १६ मात्रायें होती हैं । आचार्य हेमचन्द्रके अनुसार चार पद्धड़ियों यानी आठ पंक्तियों का कड़वक होता है । हर एक कड़वकके अन्तमें एक घत्ता या ध्रुवक होता है ।