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जैन साहित्य और इतिहास
२ - रिट्टणेमिचरिउ
यह हरिवंसपुराणु नामसे प्रसिद्ध है । अठारह हजार श्लोकप्रमाण है और इसमें ११२ सन्वियाँ हैं | इसमें तीन काण्ड हैं — यादव, कुरु और युद्ध । यादव में १३, कुरुमें १९ और युद्ध में ६० सन्धियाँ हैं । सन्धियोंकी यह गणना युद्ध - काण्ड के अन्त में दी हुई है और यह भी बतलाया है कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचना में कितना समय लगी । इससे इन ९२ सन्धियोंके कर्तृत्व के विषयमें तो कोई शंका ही नहीं हो सकती, ये तो निश्चयपूर्वक स्वयंभुदेवकी बनाई हुई हैं ।
आगे ९३ से ९९ तककी सन्धियों की पुष्पिकाओं में भी स्वयंभुदेवका नाम है और फिर उसके बाद १०० वीं सन्धिके अन्तमें त्रिभुवन स्वयंभुका नाम है इसका अर्थ यह हुआ कि ९३ से ९९ तककी सन्धियाँ भी स्वयंभुदेवकी हैं और इस तरह उनका रचा हुआ रिहणेभिचरिय ९९ वीं सन्धिपर समाप्त होता है । इस सन्धिके अन्तमें एक पद्य है जिसमें कहा है कि पउमचरिउ या सुव्वर्थेचरिउ बनाकर अब मैं हरिवंशकी रचना में प्रवृत्त होता हूँ, सरस्वतीदेवी मुझे सुस्थिरता देवें | निश्चय ही यह पद्य त्रिभुवन स्वयंभुका लिखा हुआ है और इसमें वे कहते हैं कि पउमचरिउकी अर्थात् उसके शेष भाग की रचना तो मैं कर चुका, उसके बाद अब मैं हरिवंश में अर्थात् उसके भी शेषमें हाथ लगाता हूँ । यदि इस पद्यको हम त्रिभुवनका न मानें तो फिर इस स्थान में इसकी कोई सार्थकता ही नहीं रह जाती । हरिवंशकी ९९ सन्धियाँ बना चुकनेपर स्वयंभुदेव यह कैसे कह सकते हैं कि पउमचरिउ बनाकर अब मैं हरिवंश बनाता हूँ ? अतएव उक्त पद्यसे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वयंभुकी रचना इस ग्रन्थ में ९९ वीं सन्धिके अन्त तक है । इसके आगेका भाग, १०० से ११२ तककी सन्धियाँ, त्रिभुवन स्वयंभुकी
१ स्वयंभुको ९२ सन्धियाँ समाप्त करने में छह वर्ष तीन महीने और ग्यारह दिन लगे । फाल्गुन नक्षत्र, तृतीया तिथि, बुधवार और शिव नामक योग में युद्धकाण्ड समाप्त हुआ और भाद्रपद, दशमी, रविवार और मूल नक्षत्र में उत्तरकाण्ड प्रारंभ किया गया ।
२ राम लक्ष्मण आदि बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतके तीर्थमें हुए हैं, अतएव पउमचरिउ मुनिसुव्रतचरितके ही अन्तर्गत माना जाता है । मुनिसुव्रतचरितको ही संक्षेपमें ' सुन्वयचरिय कहा है। सुव्वयचरियको मुद्धयचरिय गलत पढ़ा गया है ।