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जैनसाहित्य और इतिहास
आदि भव्य जनोंको भी आशीर्वाद दिया है कि उन्हें आरोग्य, समृद्धि और शान्ति-सुख प्राप्त हो।
कवि कहाँके थे ? अपने ग्रन्थों में इन दोनों कवियोंने न तो स्थानका नाम दिया है, न अपने समयके किसी राजा आदिका, जिससे यह पता लग सके कि वे कहाँके रहनेवाले थे। अनुमानसे इतना ही कहा जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे और बहुत करके पुष्पदन्तके ही समान बरारकी तरफके होंगे: यद्यपि मारुतदेव, धवलइया, बंदइया, नाग, आइचंबा, सामिअब्बा, आदि नाम कर्नाटक जैसे हैं और ऐसे ही कुछ नाम अम्मइय, दंगइय, सीलइय, पुष्पदन्तके परिचित जनोंके भी हैं ।
ग्रन्थ-रचना महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभुके दो सम्पूर्ण और संयुक्त ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, एक पउमचरिउ (पद्मचरित ) या रामायण और दूसरा रिटणेमिचरिउ (अरिष्टनेमिचरित) या हरिवंशपुराण । तीसरा ग्रन्थ पंचमिचरिउ (नागकुमारचीरत) है जिसका उल्लेख तो किया गया है परन्तु जो अभी तक कहीं उपलब्ध नहीं हुआ।
ये तीनों ही ग्रन्थ स्वयंभु देवके बनाये हुए हैं और तीनोंको ही उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभुने पूरा किया है । परन्तु उस तरह नहीं जिस तरह महाकवि बाणकी अधूरी कादम्बरीको उनके पुत्रने, वीरसेनकी अपूर्ण जयधवला टीकाको उनके शिष्य जिनसेनने और जिनसेनके आदिपुराणको उनके शिष्य गुणभद्रने पूरा किया था । पिता या गुरुकी अधूरी रचनाओंके पुत्र या शिष्यद्वारा पूरे किये जानेके अनेक उदाहरण हैं; परन्तु यह उदाहरण उन सबसे निराला है।
१ अन्तिम अंशका १६ वाँ पद्य ।। २-३ ये दोनों ग्रन्थ भाण्डारकर इंस्टिटयूट पूनेमें हैं - नं० ११२० आफ १८९४-९७ और १११७ आफ १८९१-९५ । पउमचरियकी एक प्रति कृपा करके प्रो० हीरालालजी जैनने भी मेरे पास भेज दी है जो सांगानेरके गोदीकाके मन्दिरकी है । यद्यपि उसके हालियेपर संवत् १७७५ लिखा हुआ है, परन्तु वह किसी दूसरेके हाथका है। प्रति उससे भी पुरानी है । हरिवंशकी एक प्रति बम्बईके ऐ० पन्नालाल सरस्वती-भवनमें भी है । इस लेखमें उक्त सब प्रतियोंका उपयोग किया गया है।