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________________ वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय ३५५ श्वेताम्बर चैत्यवासियोंके समान कोई स्वतंत्र संगठन नहीं हो सका और न एक पृथक् दलके रूपमें प्राचीन साहित्यमें कही स्पष्ट उल्लेख ही हुआ। फिर भी उनके अस्तित्वसे इंकार नहीं किया जा सकता। विक्रमकी सत्रहवीं सदीमें पं० बनारसीदासजीन जिस शुद्धाम्नायका प्रचार किया और जो आगे चलकर तेरह पन्थके नामसे विख्यात हुआ तथा जिसके विषयमें आगे चलकर अधिक प्रकाश डाला जायगा, वह इन भट्टारकों या चैत्यवासियोंके ही विरोध था और उसने दिगम्बर सम्प्रदायमें वही काम किया जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें विधि-मार्गने किया था । तेरह पन्थने भी चैत्यवासी भट्टारकोंकी प्रतिष्ठाको जड़से उखाड़कर फेंक दिया। हमारा अनुमान है कि इस तरहके प्रयत्न बनारसीदासजीसे पहले भी कई बार हुए होंगे, जिनके कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलते परन्तु जो प्रयत्न करनेसे खोजे जा सकते हैं। जैनाभास कौन थे? श्री देवसेनीरने दर्शनसार ( वि सं० ९९०) में पाँच जैनाभासोंकी उत्पत्तिका कुछ इतिहास दिया है। उनमेंसे पहलेके दो---श्वेताम्बर और यापनीयों को तो हमें छोड़ देना चाहिए। क्योंकि आचारके अतिरिक्त उनके साथ दिगम्बरोंका सिद्धान्त भेद भी विशेष था । परन्तु शेप तीन द्राविड़, काष्ठा और माथुर संघके साथ कोई बहुत महत्त्वका सिद्धान्त-भेद नहीं मालूम होता । इन तीनों जैनाभासोंका बहुत सा साहित्य उपलब्ध है और दिगम्बर सम्प्रदायमें उसका पठन-पाठन भी बिना किसी भेद-भावक होता है । परन्तु उसमें ऐसी कोई बात नहीं पाई जाती जिससे उन्हें जैनाभास कहा जाय । मोरके पंखोंकी पिच्छिके बदले गायके बालोंकी पिच्छि रखना, या पिच्छि बिल्कुल ही न रखना; खड़े होने के बदले बैठकर भोजन करना, अथवा सूखे चनोंको प्रासुक मानना, या रात्रि भोजन-विरति नामका छठा अणुव्रत १ शिवकाटि आचार्यके नामसे प्रसिद्ध की गई । रत्नमाला में लिखा है कि कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः । स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ॥ २२ ॥ ये रत्नमालाके कर्ता इतने कट्टर चैत्यवासी थे कि जैनमन्दिरों में रहना विहित बतलानेमें ही इन्हें सन्तोष न हुआ, वनवासको वजित तक बतला दिया !
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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