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जैनसाहित्य और इतिहास
भी मानना, ये सब बातें इतनी संगीन नहीं हैं कि इनके कारण ये सब जैनाभास ठहरा दिये जाय, और इनके प्रवर्तकोंको पापी मिथ्याती बतलाया जाय ।
इस लिए आश्चर्य नहीं जो ये तीनों चैत्यवासी ही हो और इसी कारण देवसेन सूरिने-जो चैत्यवासी नहीं थे-इन्हें शिथिलाचारी समझकर जैनाभास बतला दिया है । द्राविड संघके उत्पादक वज्रनन्दिके विषयमें उन्होंने लिखा है कि " उसने कछार, खेत, वसति ( जैनमन्दिर ) और वाणिज्यसे जीविका निर्वाह करते हुए
और शीतल जलसे स्नान करते हुए प्रचुर पापका संग्रह कियाँ ।” __ इससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि द्राविड़ संघके साधु वसति या जैनमन्दिरोंमें रहते थे और उन मन्दिरोंके लिए दान मिली हुई जमीनमें खेती बारी आदि करते थे । इसके कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी मिले हैं
१--न्यायविनिश्चय-विवरण, पार्श्वनाथचरित आदि प्रसिद्ध ग्रन्थोंके कर्ता वादिराजसूरि इसी संघके आचार्य थे। उनके गुरु मतिसागरकी आज्ञाके अनुसार जो दान-पत्र लिखा गया था, उससे मालूम होता है कि इस संघके मुनि भूमि आदिका प्रबन्ध करते थे। पार्श्वनाथचीरतमें स्याद्वादविद्यापति वादिराजने अपने दादा गुरु श्रीपालदेवको ‘सिंहपुरैकमुख्य' लिखा है और न्यायविनिश्चय-विवरणमें स्वयं अपनेको ‘सिंहपुरेश्वर' अर्थात् सिंहपुरका स्वामी लिखा है । अभिप्राय यह कि सिंहपुर उन्हें जागीरमें मिला हुआ था, इसलिए यह स्वाभाविक है कि वे उसका सब प्रबन्ध भी करते थे।
१-कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिजं कारिऊण जीवंतो। ___ण्हतो सीयलणारे पावं पउरं स संचेदि ।। २७ ।। २ देखा जैनसिद्धांतभास्कर भाग १, किरण २-३ पृ० ५, शिलालेख नं० ६ । यह शिलालेख सत्यवाक्य परमानदीके राज्यके चौथे वर्षमें मतिसागर पण्डित भट्टारककी आज्ञासे लिखा गया था । ३ मूरिः स्वयं सिंहपुरैकमुख्यः श्रीपालदेवो नयवर्तीशाली । ३ श्रीमसिंहमहीपतेः परिषदि प्रख्यातवादोन्नतिस्तर्कन्यायतमोपहोदयगिरिः सारस्वतः श्रीनिधिः । शिष्यः श्रीमतिसागरस्य विदुषां पत्युस्तपश्रीभृतां भर्तुः सिंहपुरेश्वरो विजयते स्याद्वादविद्यापतिः ।