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जैनसाहित्य और इतिहास
" चितौड़ के श्रावकोंने महावीर भगवानका एक मन्दिर बनाकर उसके गर्भगृहके द्वारके एक स्तंभपर उक्त संघपट्टकके चालीसों पद्य खुदवा दिये हैं जो आज तक उनकी कीर्तिको प्रकट कर रहे हैं। जिनवल्लभ सूरिका यह प्रयत्न बहुत ही अच्छा था, परन्तु चैत्यवासियों को असह्य हुआ । कहा जाता है कि वे पाँच सौ लठैतों के साथ उक्त मन्दिरपर चढ़ आये; परन्तु तत्कालीन महाराणाने उन्हें इस अपकृत्यसे रोक दिया ।
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" जिनवल्लभ के बाद जिनदत्त और जिनपति सूरिने भी अपना सुविहित मार्गका प्रचार कार्य जारी रखा । जिनपति सूरिने संघपट्टकपर एक तीन हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसका खूब प्रचार किया और उनके गृहस्थ शिष्य नेमिचन्द्र भंडारीने पेटशेतक नामक प्राकृत ग्रन्थ रचकर चैत्यवासियोंके शिथिलाचारका खंडन किया । इसी तरह गुजरात में भी मुनिचन्द्र, मुनिसुन्दर आदि आचार्योंने अपनी रचनाओं और उपदेशोंसे चैत्यवासियों को हतप्रभ कर दिया |
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सङ्क्षेपमें यही श्वेताम्बर सम्प्रदायके चैत्यवासियों का इतिहास है ।
दिगम्बर चैत्यवासी
दिगम्बर सम्प्रदाय के साहित्य में ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता जिसमें चैत्यवास के प्रारंभकी कोई तिथि बतलाई गई हो और न चैत्यवास नामके किसी पृथक् संगठन या सम्प्रदायका ही कोई उल्लेख मिलता है । फिर भी यह निश्चित है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भी वह था और बहुत पुराने समय से था । इसमें भी धीरे धीरे शिथिलाचार बढ़ता रहा है और परिस्थितियाँ तथा मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलतायें उसे बराबर सींचती रही है, जिसका परिपाक हमारे भट्टारकोंकी चर्या और उनके रहन-सहन में स्पष्ट दिखलाई देता है ।
दिगम्बर-चर्या इतनी उग्र और कठोर है कि हमारे खयाल में नन साधुओंकी संख्या श्वेताम्बर साधुओंके मुकाबिलेमें हमेशा कम रही है और पिछले कई सौ वर्षोंसे तो वे क्वचित् ही दिखलाई देते रहे हैं। शायद इसी कारण उनका
१ स्व० प० भागचन्द्रजीने इसी ग्रन्थको दिगम्बर सम्प्रदाय में 'उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला' नामसे भाषावचनिका लिखकर प्रचार किया है। मूल ग्रन्थमें जो बातें चैत्यवासियोंके लिए लिखी हैं वे प्राय: सबकी सब दिगम्बर भट्टारकोंपर भी घटित होती हैं
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