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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
हुआ । स्थान भेदसे जैसे जल मोती भी होता है और लवण भी होता है, वैसे ही गुरुका उपदेश भी पात्रके अनुसार ही परिणमन होता है । पर्वत मेरा प्यारा पुत्र है और वसु मुझे पुत्रसे भी अधिक प्यारा है । ये ही दोनों जब नरकमें जानेवाले हैं, तब फिर घरमें रहनेसे मुझे क्या प्रयोजन है ?"
ऐसे निर्वेद दशा-वैराग्य-प्राप्त कर गुरुने दीक्षा ले ली। उनका स्थान पर्वतने लिया । वह व्याख्यान करनेमें, पढ़ानेमें बहुत ही निपुण था । गुरुकृपासे शास्त्रोंमें निपुण हो कर, मैं भी अपने स्थानको चला गया। राजाओंमें चंद्रके. समान अभिचंद्र राजाने समय आने पर दीक्षा ग्रहण कर ली । लक्ष्मीसे वासुदेवके समान सुशोभित होनेवाला वसु अपने पिताकी गद्दी पर बैठा । वह पृथ्वीमें सत्यवक्ताके. नामसे प्रसिद्ध होगया । उस ख्यातिको अक्षुण्ण रखनेके. लिए वह हमेशा सत्य ही बोलता था। ___ एक वार विध्यागिरिकी स्थलीमें कोई शिकारी शिकार खेलनेको गया । उसने मृगके ऊपर बाण छोड़ा, मगर वह बीचहीमें रह गया । बाणके, बीचहीमें, स्खलित हो जानेका कारण जाननेको वह वहाँ गया। उसने वहाँ पर आकाशके समान निर्मल एक स्फटिक शिला देखी; शिलासे उसका स्पर्श हुआ। इससे उसने सोचा-चंद्रमाकी छाया जैसे भूमि पर पड़ती है, वैसे ही किसी दूसरे स्थानमें चरतें