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रावणका दिग्विजय ।
मैं, नगरके बाहिर एकान्त स्थानमें जाकर, दिशा विदिशाओंको देखता हुआ, सोचने लगा,-गुरुने इस विषयमें आज्ञा दी है कि-जहाँ कोई देखता न हो ऐसी जगहमें लेजाकर मुर्गेको मारना। मगर यहाँ तो मुर्गा स्वयं देखता है, मैं देखता हूँ, खेचर देखते हैं, लोकपाल देखते हैं और ज्ञानी भी देखते हैं । ऐसी जगह तो कहीं भी नहीं है, जहाँ कोई नहीं देखता हो । इससे गुरुकी आज्ञाका तात्पर्य ऐसा जान पड़ता है कि, मुर्गेको न मारना। हमारे पूज्य गुरु तो दयालु हैं; वे सदा हिंसासे दूर रहनेवाले हैं। उन्होंने हमारी बुद्धिकी परीक्षाके लिए ही ऐसी आज्ञा दी है।" ऐसा सोच, मैं गुरुके पास लौट गया और मुर्गेको नहीं मारनेका हेतु गुरुको सुना दिया । गुरुने सोचा, यही शिष्य स्वर्गमें जायगा । पश्चात गुरुने शाबाशी देकर मेरा गौरव किया और मुझे गलेसे लगाया।
थोड़ी देरके बाद वसु और पर्वत भी आगये । उन्होंने कहा,-"हमने कोई नहीं देखे ऐसी जगहमें लेजाकर मुर्गेको मार डाला है । " गुरुने उनको धिक्कारा और कहा:-"रे पापियो ! स्वयं तुम देखते थे; और ऊपर खेचर आदि देखते थे फिर तुमने मुर्गेको कैसे मार डाला ?" .. गुरुको उनके कृत्यसे बड़ा ही दुःख हुआ। उन्होंने आगे पढ़ाना बंद कर दिया। उन्होंने सोचा,-" वसु और पर्वतको पढ़ानेमें मैंने जो प्रयास किया वह व्यर्थ