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जैन रामायण द्वितीय सर्ग।
शुक्तिमती नामक एक प्रसिद्ध नगरी है । उसको चहुंओरसे सखिके समान शुक्तिमती नामकी नदीने घेर रक्खा है। उसमें उत्तम आचरणवाले अनेक राजा होगये । बादमें मुनिसुव्रतस्वामीके तीर्थमें अभिचंद्र नामका राजा हुआ । वह सारे गत राजाओंसे श्रेष्ठ राज्यकर्ता हुआ । उसके वसु नामका पुत्र हुआ। वह महान बुद्धिमान और सत्यवक्ता था।
बचपनमें मैं, वसु और गुरु-पुत्र पर्वत तीनों 'क्षीरकदंव गुरुके पास पढ़ते थे । एक वार रात्रिके समय, .अभ्यासके श्रमसे थक कर, हम तीनों छतपर सो रहे
थे। उस समय दो चारण मुनि आकाशमार्गसे, बातें करते हुए, जा रहे थे कि-" इन तीनों विद्यार्थियोंमेंसे एक स्वर्गमें जायगा और दो नरकमें जायँगे ।" यह बात हमारे गुरुने सुनी । उनको दुःख हुआ । वे सोचने लगे कि, मेरे समान गुरुके होते हुए भी दो शिष्य नरकमें जायँगे ! दैवकी गति विचित्र है।"
गुरुके हृदयमें यह जाननेकी इच्छा हुई कि, कौन नरकमें जायगा और कौन स्वर्गमें जायगा; इसलिए उन्होंने दूसरे दिन हम तीनोंको बुलाया; एक आटेका मुर्गा बनाकर हमें दिया और कहा,-" जहाँ कोई न देखे वहाँ ले जाकर तुम इसको मार आओ।" हम तीनों वहाँसे चले। चसु और पर्वतने, निर्जन स्थानमें जाकर, अपनी आत्मगतिके अनुसार आटेके मुर्गों को मार डाला।