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इनके सिवाय और भी सैकड़ों कथायें, प्रसंगोपात इन पर्वोंमें आ हैं । इस ग्रंथ को हम जैन महापुरुषों के चरित्रोंका भंडार कहें तो - कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
प्रस्तुत पुस्तक सातवें पर्वका अनुवाद है। सातवें पर्वमें तेरह स हैं । मगर हमने दस सर्गोका ही अनुवाद किया है । क्योंकि यह तक राम, लक्ष्मण और रावणके चरित्र हैं। शेष तीन सर्गोंमें दूस चरित्र हैं । इस लिए हमने उनको छोड़ दिया है। अगर हम ती सर्ग नहीं छोड़ देते तो इस ग्रंथका नाम 'जैनरामायण' रखन सार्थक नहीं होता ।
गुजराती भाषा में दो जगह से इस पर्व के अनुवाद प्रकाशित हु हैं । दोनों हमारे पास हैं । पहिला अनुवाद बम्बई निवासी चमनला साँकलचंद मारफतियाने संवत १९५२ में लिखकर प्रकाशित कराय था, और दूसरा अनुवाद. संवत १९६४ में भावनगरकी जैनधर्मप्र सारक समाने । पहिले अनुवाद में अनुवादकने स्वाधीनता से काम लिय है। दूसरे अनुवाद में आचार्य महाराजके शब्दोंके अतिरिक्त और को नवीन बात नहीं मिलाई गई है। हमें भावनगरकी सभावाला अनुवा - बहुत पसंद आया । इसलिए इसी अनुवादसे हमने इस ग्रंथका अनु वाद किया है । हाँ लिखते हुए जो कोई बात हमें संदेह जन - मालूम हुई, या गुजरातीमें हम न समझ सके उसको हमने मूलसे दे लिया है। ऐसे कई प्रसंग आये हैं ।
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गुजराती अनुवादकी अपेक्षा हिन्दी अनुवादमें एक बातकी विशे ता है । वह विशेषता यह है कि, आचार्य महाराजने इसमें जित नीतिके वाक्य दिये हैं; हमने उन सबको मूल सहित लिखा है अर्थात मूल संस्कृत पद लिखकर नीचे ब्रेकेटमें उसकी हिन्दी लिर