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रावणका दिग्विजय ।
शाबाशी देता हूँ; और तेरी इस निस्पृहतासे तुझ पर विशेष तुष्ट हुआ हूँ।"
इतना कह, अमोघ शक्ति और रूप विकारी-स्वरूप बदलेनवाली-विद्या रावणको दे, धरणेन्द्र अपने स्थानपर चले गये।
रावण अष्टापद पर्वत ऊपरके सब तीर्थंकरोंकी वंदनाकर, नित्यालोक नगरमें गया और वहाँसे रत्नावलीका पाणिग्रहण कर, उसके सहित वापिस लंकामें गया ।
उसी समय वाली मुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। सुर असुरोंने आकर केवलज्ञानका महोत्सव किया । अनुक्रमसे वाली मुनि भवोपग्राही' काँका क्षय कर, अनंत चतुष्टयको पा, मोक्षमें गये।
साहसगतिका शेमुषी विद्या साधने जाना। वैताब्यगिरि पर ज्योतिष्पुरमें 'ज्वलनशिख' नामक विद्याधरोंका राजा राज्य करता था। उसके श्रीमती नामकी एक राणी थी । रूप-संपत्तिसे वह लक्ष्मीतुल्य थी। उसके उदरसे एक विशाललोचनी कन्या हुई थी। उसका नाम 'तारा' रक्खा गया था।
'चक्रांक' नामक विद्याधर राजाके पुत्र ‘साहस गति' ने एकवार ताराको देखा । उसको देखकर वह ___१ नाम, गोत्र, वेदनी और आयु ये चार अघाती कर्म संसारका ' अंत होने तक रहते हैं; इस लिए इनको भवोपग्राही कर्म कहते हैं।