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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
प्रकारी पूजा की । फिर महान साहसी रावणने भक्तिवश हो, अपनी नसोंको खींच, उसकी तंत्री-वीणा बना, भुजवीणा बजाना प्रारंभ किया । दशानन ' ग्राम ' रागसे रम्य बनी हुई मनोहर वीणा बजा रहा था; और उसकी स्त्रियाँ सात स्वरोंमें मनोहर स्तवन- स्तुतियाँ- गा रही थीं।
उसी समय पन्नगपति धरणेन्द्र चैत्यकी यात्रा के लिए वहाँ आया । उसने पूजा करके प्रभु वंदना की । पश्चात रावणको अर्हत गुणमय, ध्रुवक आदि गीतोंका, मनोहर वीणा के साथ गायन करते देख; धरणेंद्रने उसको कहा:" हे रावण तू अतोंका बहुत ही मनोहर गुण गायन कर रहा है । यह गायन तू तेरे अन्तःकरणकी भक्तिसे कर रहा है; इस लिए मैं तुझसे संतुष्ट हुआ हूँ । यद्यपि अतोंकी भक्तिका मुख्य फल मुक्ति है, तथापि अब तक तेरी संसार - वासना जीर्ण नहीं हुई है, इस लिए तेरी इच्छा हो सो माँग । मैं तुझे दूँगा । "
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रावणने उत्तर दिया:-- " हे नागेंद्र, देवोंके भी देव श्री अर्हत प्रभुके गुणोंकी स्तुति सुनकर आप प्रसन्न हुए; यह आपके हृदय में रही हुई स्वामी भक्तिका चिन्ह है । मगर मुझे तो किसी वरदानकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि वरदान देने से जैसे आपकी स्वामी भक्ति उत्कृष्ट होती है, वैसे ही वरदान माँगने से मेरी स्वामीभक्ति हीन होती है । धरणेन्द्रने फिर कहा :- " हे मानद रावण ! मैं तुझे
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