________________
रावणका दिग्विजय ।
हैं, और मुझको क्षमा कर देते हैं । हे प्रभो ! अब मैं मानता हूँ कि पहिले आपने पृथ्वीका त्याग किया था सो मेरे पर कृपा करके ही किया था। सामर्थ्यहीन होनेसे नहीं। मगर मैं उस समय इस बातको नहीं समझ सका था। हे नाथ ! हाथीका बच्चा, जैसे अज्ञानतासे पर्वतको फिरानेका प्रयत्न करता है वैसे ही, अज्ञानतासे मैंने अपनी शक्तिको तोलना प्रारंभ किया था, परन्तु आज मैं समझा, कि आपमें और मुझमें इतना ही अंतर है, जितना पर्वत और बल्मीक में; तथा गरुड़ और गीध पक्षीमें है । हे स्वामी ! मृत्युमुखमें पड़े हुएकी आपने रक्षा की मुझको प्राणदान दिया । मुझ अपकार करनेवाले पर भी आपने उपकार किया, इस लिए आपको मैं नमस्कार करता हूँ।"
इस तरह दृढ़ भक्तिके साथ वाली मुनिसे प्रार्थना कर, क्षमा माँग तीन प्रदक्षिणा दे, रावणने नमस्कार किया। वाली मुनिके इस महात्म्यको देख, हर्षित हो, 'साधु'
साधु ' कह, आकाशमेंसे देवताओंने वाली मुनि पर पुष्पदृष्टि की।
दुबारा मुनिको नमस्कार कर; रावण पर्वतके मुकुट समान भरत राजाके बनवाये हुए, चैत्यके पास गया । चैत्यके बाहिर अपने चंद्रहास खङ्ग आदि शस्त्र रख; अंत:पुर सहित रावणने अंदर जाकर ऋषभादि अर्हतोंकी अष्ट
१ वामलूर, कीड़ोंसे बनाया गया मिट्टीका ढेर ।