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जन रामायण द्वितीय सर्ग।
राग द्वेष किये विना रावणको थोड़ासा प्रबोध देना आवश्यकीय है।" _ऐसा विचार कर, भगवान वालीने पैरके अंगूठेसे अष्टापदगिरिके शिखरको जरासा दबाया । तत्काल ही उस दबावसे-जैसे मध्यान्हकालमें शरीरकी छाया संकुचित हो जाती है, जैसे जलके बाहिर कछुए का सिर संकुचित हो जाता है वैसेही,-रावणका शरीर संकुचित हो गया; उसके भुजदंड टूटने लगे; मुंहसे रुधिर बहने लगा। पृथ्वीको रुलाता हुआ रावण ऊँचे स्वरसे रोने लगा। उसी दिनसे उसका दूसरा नाम रावण हुआ । उसका आर्त आक्रंदन-हृदयको पसीजा देनेवाला रोना-सुन; दयालु वाली मुनिने उसको छोड़ दिया । ' क्योंकि उन्होंने वह कार्य रावणको केवल शिक्षा देनेके लिए ही किया था, क्रोधसे नहीं।'
रावणका पश्चात्ताप और वाली मुनिका मोक्ष गमन । गिरिके नीचेसे निकल, प्रतापहीन बना हुआ रावण, पश्चात्ताप करता हुआ, वाली मुनिके पास गया और हाथ जोड़ नमस्कार कर बोला:-" जो अपनी शक्तिसे अजान हैं, जो अन्याय करनेवाले हैं, और जो लोभसे हार चुके हैं, उन सबमें मैं प्रधान हूँ; धुरंधर हूँ। हे महात्मा! मैं निर्लज्ज होकर बार बार आपका अपराध करता हूँ और आप शक्तिमान होते हुए भी सब कुछ सहते