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रावणका दिग्विजय ।
आया था, मैं तुझको, अब इस अष्टापद गिरि सहित, लवण समुद्र में डाल देता हूँ। "
ऐसा कह, जैसे स्वर्ग में से गिरा हुआ वज्र पृथ्वीको फाड़ देता है, वैसे ही पृथ्वीको फाड़ रावण अष्टापद गिरिके नीचे घुसा । फिर भुजाओंके बलसे उद्धत बने हुए रावणने एक हजार विद्याओंका स्मरणकर, उस दुर्द्धर पर्वतको उठाया । उस समय उसके तड़तड़ शब्दोंसे व्यंतर त्रसित हुए; झल झल शब्दोंसे चपल बने हुए समुद्रसे पृथ्वतिल ढकने लगा; खड़खड़ करके पड़ते हुए पाषाणोंसे वनके हाथी क्षोभ पाने लगे और कड़कड़ाहट करते हुए गिरिनितंब के उपवन में वृक्ष टूटकर गिरने लगे ।
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रावणने पर्वत उठाया; उक्त प्रकारकी स्थिति प्राप्त हुई। इस बातको अनेक लब्धिरूपी नदियोंको धारण करने वाले - सागर - शुद्ध बुद्धि वाले महा मुनि वालीने देखा । वे सोचने लगे :- " अहो ! यह दुर्मति रावण अब तक मुझसे द्वेष रखता है; और मेरे द्वेषके कारण असमयमें ही अनेक प्राणियों का संहार करने को तैयार हुआ है; और साथही भरतेश्वरके बनवाए हुए, इस चैत्यका नाश करके, भरतक्षेत्र के आभूषणरूप इस तीर्थका भी यह उच्छेद करनेका यत्न कर रहा है । यद्यपि मैं इस समय निःसंग हूँ; मैं अपने शरीर की भी ममता नहीं रखता हूँ; राग द्वेष रहित हूँ; शमता जलमें निमग्न हूँ, तथापि प्राणियोंकी और चैत्यकी रक्षाके लिए