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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
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रावणका अष्टापदगिरि उठाना। एक वार रावण नित्यालोक नगरीमें, वहाँके राजा 'नित्यालोक ' की कन्या 'रत्नावली' के साथ ब्याह करने जा रहा था। मार्गमें अष्टापद गिरि आया। वहाँ रावणका पुष्पक विमान चलता हुआ रुक गया । जैसे कि, दुर्गके पास शत्रु-सेनाकी गति रुक जाती है । जैसे सागरमें लंगरोंके डाले जानेसे जहाज रुक जाता है; जैसे बँधजानेसे हाथी रुक जाता है, वैसे ही अपने विमानको रुका हुआ देखकर, रावणको बहुत क्रोध आया । वह यह कहता हुआ नीचे उतरा कि-" कौन है जो मेरे विमानको रोक कर मौतका नवाला बननेकी इच्छा रखता है ? ” पर्वतपर उसे वाली मुनि दिखाई दिये । कायोत्सर्ग करते हुए मुनि ऐसे सुशोभित हो रहे थे; मानो पर्वतसे कोई नवीन शिखर निकला है । मुनिको अपने विमानके नीचे देखकर वह बोला:-"रे वाली मुनि ! क्या अब भी मुझपर तेश क्रोध है ? क्या जगतको ठगने के लिए तूने यह व्रत धार रक्खा है ?-दीक्षा ले रक्खी है ? पहिले किसी मायाके बलसे तूने मुझे उठाकर फिराया था; मगर पीछेसे बदलेकी आशंका कर तूने दीक्षा लेली थी । मगर अब भी मैं तो वही रावण हूँ; और मेरी भुजाएँ भी वे ही हैं। अब मेरा समय है; मैं तुझे तेरे कियेका प्रति फल दूंगा। तू मुझको चंद्रहास खगसहित उठाकर चारों समुद्रोंके चक्कर दे