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रावणका दिग्विजय।
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'गगनचंद्र' मुनिके पास जाकर दीक्षा ले ली। विविध प्रकारके अभिग्रहधर, तपको आचरणमें लाते हुए, और मुनिप्रतिमाको भली प्रकार निभाते हुए, वाली मुनि ममतारहित बन, पृथ्वीपर शुभ ध्यानपूर्वक विहार करने लगे। जैसे वृक्षको पुष्प, पत्ते और फलादि संपत्तियाँ प्राप्त होती हैं, वैसे ही भट्टारक वाली मुनिको भी अनुक्रमसे अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुई । एकवार विहार करते हुए, वे अष्टापद गिरिपर गये और वहाँ वे दोनों भुजाएँ लंबीकर कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे। उनकी ध्यान-प्रतिमा ऐसी मालूम होती थी कि मानो वृक्षके ऊपर झूले डाले हुए हैं । एक महीने तक उन्होंने इसी तरह ध्यानमें रह व्रत किया। महीनेके बाद पारणा किया; फिर एक महीनेका कायोत्सर्गकर व्रत किया । महीनेके बाद पारणा किया। इसीप्रकार वे मास क्षमण तप करने लगे।
उधर सुग्रीव ने अपनी बहिन श्रीप्रभाका ब्याह रावणके साथ कर दिया; इस ब्याहने मूखते हुए पूर्वस्नेहरूपी वृक्षको हरा करनेमें सारणी-जलधारा-का कार्य किया। फिर चंद्रके समान उज्ज्वल कीर्तिवाले सुग्रीवने वालीके चंद्ररश्मि नामक पराक्रमी पुत्रको युवराज पदवी प्रदान की। जिसकी आज्ञा मानना सुग्रीवने स्वीकार किया है, ऐसा रावण श्रीप्रभाको ले लंकामें गया। अन्य भी कई विद्याघरोंकी कन्याओं के साथ रावणने जबर्दस्तीसे ब्याह किया।