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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
जैसे कोई हाथी लीलामात्रमें किसी वृक्षको डालसहित उखाड़ डालता है वैसे ही वालीने, चंद्रहास खड्ग सहित रावणको बाएँ हाथसे उठाकर अपनी बगल में दवालिया और फिर आप अव्यग्रता से क्षणवार में, चार समुद्रों सहित पृथ्वी की 'परिक्रमा देआया । लज्जाके मारे रावणका सिर झुक गया; वालीने रावणको छोड़ दिया और कहा :- " हे रावण ! वीतराग, सर्वज्ञ, आप्त और त्रैलोक्यपूजित अरिहंत के सिवा मेरे लिए संसार में कोई भी नमस्कारके योग्य नहीं है। तेरे शरीरोद्धत - शरीरमेंसे उत्पन्न हुए हुए- तेरे उसमानको धिक्कार है, कि जिसके कारण तू मुझे अपना सेवक बनाने की इच्छा कर, इस स्थितिको प्राप्त हुआ है; परंतु मैं मेरे वड़ों पर किये हुए तेरे उपकारोंको याद कर, तुझे छोड़ देता हूँ, और इस पृथ्वीका राज्य भी मैं तुझे देता हूँ | तू इसपर अखंड आज्ञा चला और इसका पालन कर । यदि मैं विजयकी इच्छा करूँ- यदि मैं इस पृथ्वी पर अधिकार करना चाहूँ - तो फिर तुझे यह पृथ्वी कैसे मिले ? क्योंकि जहाँ सिंह बसते हैं वहाँ हाथियोंको कैसे जगह मिल सकती है ? मगर मुझे अब कुछ इच्छा नहीं है । मैं मोक्ष -साम्राज्यकी कारणभूत दीक्षा ग्रहण करूँगा । किष्किंधाका राज्य सुग्रीवको देता हूँ | यह तेरी आज्ञा पालता हुआ
'यहाँका राज्य करेगा । "
इतना कह, सुग्रीवको राज्य - सिंहासनापर बिठा, वालीने
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