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रावणका दिग्विजय।
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की तो बात ही क्या है ? यद्यपि शत्रुओंको ( हरप्रकारसे ) जीतना योग्य है, तथापि पराक्रमी पुरुष तो निज भुजसे ही शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा रखते हैं । हे रावण ! तू पराक्रमी है और श्रावक भी है इस लिए सेना-युद्धको बंद कर दे क्योंकि ऐसे युद्धोंमें अनेक (निर्दोष) प्राणियोंका संहार होता है; इस लिए ये चिर नरकवासकी प्राप्तिके कारण होते हैं।"
वालीने रावणको जब इस भाँति समझाया तब, धर्मके जानने वाले; सब प्रकारकी युद्धविद्यामें चतुर, रावणने स्वयमेव, वालीसे युद्ध करना प्रारंभ किया । रावणने वालीपर जितने शस्त्र चलाये उन सबको वालीने अपने शस्त्रोंसे निरर्थक-हत-शक्ति कर दिया । जैसे कि अग्निके तेजको मूर्यकी किरणें कर देती हैं । रावणने सर्पास्त्र और वरुणास्त्र आदि मंत्रास्त्र चलाये । वालीने गरुडास्त्र आदि शस्त्रोंसे उनको नष्ट करदिया । जब सारे शस्त्र मंत्रास्त्र निष्फल होगये, तब रावणने, एक दीर्घकाय भुजंगके. समान, 'चंद्रहास' नामक खगको खींचा; और उसे ऊँचा कर वह वालीको मारने चला। उस समय रावण खड्न सहित ऐसा दिखाई देता था मानो कोई एक दाँतवाला हाथी जा रहा है; अथवा मानो कोई पर्वतका शिखर उठाकर लेजा रहा है।