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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।,
तत्काल ही काम पीडित हो गया । इस लिए साहसगतिने ज्वलन शिव के पास मनुष्य भेज कर, ताराको माँगा । उसी समय किष्किंधाके राजा सुग्रीवका दूत भी ताराको. माँगने आया । - क्यों नहीं ?
' रत्ने हि बहवोऽर्थिनः । '
( रत्नकी सब इच्छा रखते हैं ।) साहसगति और सुग्रीव, दोनों ही जातिवान, रूपवान और पराक्रमी थे । इस लिए ज्वलनशिख निश्चय नहीं कर सका कि वह कन्या किसको दे | अतः इसका निश्चय करनेके लिए उसने किसी निमित्तज्ञानीसे पूछा । निमित्तियाने कहा :" साहसगति थोड़ी उमरवाला है और सुग्रीव दीर्घा - युवाला है । "
यह जानकर ज्वलनशिखने सुग्रीव के साथ ताराका ब्याह कर दिया । साहसगतिको इस बातकी खबर हुई । वह अभिलाषा और वियोगकी आग से झुलसने लगा और इधर उधर फिरने लगा, मगर उसको किसी जगह से भी शांति नहीं मिली ।
ताराके साथ क्रीडा करते हुए सुग्रीवके " अंगद " और जयानंद नामक दो पुत्र हुए । वे दिग्गज - ऐरावत: हाथी के समान पराक्रमी थे ।
मन्मथ - मथित आत्मावाला ताराका अनुरागी साहस -- गति विचारने लगा - " अरे ! मृगके बच्चे के समान नेत्रों
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