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बड़ी देरतक रावण और यमराजके आपसमें बाणयुद्ध होता रहा । फिर जैसे उन्मत्त हाथी शुण्ड-दंड-मुंडरूपी दंड-को ऊँचा करके दौड़ता है वैसे, ही यमराज दारुण दंड लेकर, बड़े वेगके साथ रावणपर दौड़ा । शत्रुओंको नपुंसकके समान समझनेवाले रावणने क्षुरम बाणसे कमलके समान उस दंडके टुकड़े कर दिये; यमराजने रावणको बाणोंसे ढक दिया; रावणने उन बाणोंको ऐसे ही नष्ट कर दिये जैसे लोभ सब गुणोंको नष्ट करदेता है । फिर एक साथ बाण-वर्षाकर रावणने यमराजको जर्जर कर दिया; जैसे जरा-बुढ़ापा-शरीरको जर्जर बना देता है । तब यमराज संग्रामसे मुहँ मोड़ भागा और शीघ्रतासे रथनुपुरके राजा इन्द्र विद्याधरकी शरणमें चला गया । ___ इन्द्र राजाको नमस्कार कर, हाथ जोड़ वह बोला:-" हे प्रभो ! मैं अब अपने यमपनेको जलांजुली देता हूँ। हे नाथ अब मैं, तोषसे-प्रसन्नतासे, या रोषसे किसी तरहसे भी यमपना न करूँगा; क्योंकि आजकल यमका भी यम रावण उत्पन्न हुआ है । उसने नरकके रक्षकोंको मार सारे नारकियोंको छोड़ दिये हैं । उसके पास क्षात्र-व्रतरूप धन है इसी लिए उसने मुझे भी जिवित छोड़ दिया है। उसने वैश्रवणको जीत, लंका और पुष्पकविमान उससे ले लिए हैं, और सुरसुंदरके समान बली विद्याधरको भी उसने हरा दिया है।"