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जैन रामायण द्वितीय सर्ग।
विद्याधर-जिसका सारा शरीर घाव लगनेसे जर्जरित हो रहा था-सभामें गया और रावणको प्रणाम कर कहने लगा:--" हे देव किष्किधी राजाके पुत्र सूर्यरजा और ऋक्षरजा पाताल लंकासे किष्किंधामें गये थे। वहाँ यमके समान भयंकर और प्राणोंको संशयमें डालनेवाले 'यम राजाके साथ उनका तुमुल युद्ध हुआ। बहुत देर तक युद्ध होनेके बाद, यमराजाने दोनों भाइयोंको चोरकी भाँति बाँध लिया और जेलखानेमें डाल दिया। उस जेलखानेको उसने वैतरणीवाला नरक बनाया है; और दोनों भाइयोंको और उसके परिवारको वह छेदन भेदन आदि नरक-यातना दे रहा है । हे अलंघनीय आज्ञादायक दशमुख ! तुम उनको शीघ्र ही छुड़ाओ । क्योंकि वे तुम्हारे क्रमागत सेवक हैं; उनका पराभव तुम्हारा ही पराभव है।"
यह सुनकर रावण बोला:-" तुम कहते हो यह बात बिलकुल ठीक है । ' आश्रय-दाताकी दुर्बलताहीसे आश्रितका पराभव होता है। मेरे परोक्षमें दुर्बुद्धि ' यम । ने मेरे सेवकोंको, बाँध कर काराग्रहमें डाल दिया है। इसका प्रतिफल मैं उसको शीघ्र ही दूंगा।"
फिर अनेक प्रकारकी इच्छाओंका रखनेवाला, उग्र भुज-वीर्यका धारक रावण सेना लेकर ' यम ' दिग्पाल पालित किष्किंधापुरी पर चढ़ गया । वहाँ त्रपुपान, शिला