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जैन रामायण द्वितीय सर्ग।
'स्तोकं विहाय बहिष्णुर्नहि लज्जास्पदं पुमान् ।' ( थोड़ा छोड़ विशेषकी इच्छा करनेवाला पुरुष कभी लज्जाका स्थान नहीं बनता।) अतः मैं वही करूँगा । अनेक अनर्थोके मूल इस राज्यकी अब मुझे आवश्यकता नहीं है । मैं मोक्षमंदिरकी द्वाररूप दीक्षा ग्रहण क़रूँगा । यद्यपि कुंभकर्ण और रावण मेरा अपकार करते थे; परन्तु उन्हींके कारणसे मुझे आज सुमार्गका दर्शन हुआ है। इस लिए वे मेरे उपकारी हैं। सावण मेरी मासीका लड़का होनेसे वैसे ही मेरा बन्धु था; और अब इसकी कृतिसे भी यह मेरा बन्धु ही हुआ है; क्योंकि यदि इसकी ओरसे ऐसा उपक्रम नहीं होता-यदि यह युद्धकर मेरी सेनाका भंग नहीं कर देता-तो ऐसी श्रेष्ठ बुद्धि मुझे कभी नहीं सूझती । " ऐसा सोच, शस्त्रास्त्रोंका त्यागकर, वैश्रवणने अपने आप ही दीक्षा ग्रहण कर ली। __ यह खबर सुन रावण उसके पास गया और नमस्कार कर, हाथ जोड़, बोला:-" तुम मेरे ज्येष्ठ बन्धु हो; अतः अनुजके इस अपराधको क्षमा करो । हे बन्धु ! तुम नि:शंक हो लंकामें राज्य करो। हम और जगह चले जायेंगे। पृथ्वी बहुत विशाल है ।" रावणकी बात सुनी; मगर उसी भवमें मोक्ष जाने वाले महात्मा वैश्रवणने-जो कि प्रतिमा धारण कर खड़े थे-कुछ भी उत्तर नहीं दिया । वैश्रवणको निस्पृह हुआ समझ, सवणने, उससे क्षमा