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रावणका दिग्विजय ।
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दूसरोंको कर देता है, जो दूसरोंके सहारेसे राज्य करता है उसको ऐसे वचन बोलते लाज नहीं आती ? ओह ! कैसी धृष्टता है ! तू दूत है इसलिए मैं तुझको मारता नहीं हूँ। अब तू तत्काल ही यहाँसे चलाजा ।"
रावणके वचन सुन, दूत तत्काल ही वैश्रवणके पास गया और उसको रावणका पूरा कथन सुना दिया । क्रोधित रावण भी दूतके पीछे ही पीछे अपने अनुजों सहित सेना लेकर लंकापर चढ़ गया, और दूत भेजकर युद्धके लिए उसने वैश्रवणको निमंत्रण दिया । वैश्रवण बड़ी भारी सेना लेकर युद्धके लिए नगरसे बाहिर आया । युद्धप्रारंभ हुआ। थोड़ी ही वारमें अनिवारित पवन जैसे वनभूमिको भंग करता है वैसे ही रावणने उसकी सेनाको भंग कर दिया। वैश्रवणने सेनाका भंग होना अपना ही भंग होना समझा । उसका क्रोध बुझ गया । वह विचार करने लगा-कमलोंके छिन्न होनेसे सरोवरकी, दाँतोंके टूट जानेसे हाथीकी, शाखाओंके गिर पड़नेसे वृक्षकी, मणि-विहीन अलंकारकी ज्योत्स्ना रहित चंद्रमाकी
और जल-हीन मेघोंकी जैसी स्थिति होती है वैसी ही स्थिति शत्रु द्वारा जिस पुरुषका मान मर्दित होता है उस पुरुषकी भी होजाती है। ऐसी स्थिति धिक्कार योग्य है । मगर वह मानभंग पुरुष यदि उस स्थितिमें मुक्तिके लिए यत्न करे तो वह वास्तविक स्थानको पा सकता है ।