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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
उन्होंने कइयोंको कैकसी, रत्नश्रवा और सूर्पणखा बनाई उन्हें बाँध दिया और उन्हें लेजाकर उनके सामने डाल दिया । मायामयी रत्नश्रवा, कैकसी आदि आँसू बहाने लगे और आक्रंदन करते हुए कहने लगे:-" हे वत्सो ! शिकारी जैसे तिर्यंचोंको मारते हैं वैसे ही ये निर्दय पुरुष तुम्हारे सामने हमें मारने लग रहे हैं, और तुम बैठे देख रहे हो । हे दशमुख ! तू हमारा एकान्त भक्त होकर भी कैसे शान्त है ? कैसे उपेक्षा कर रहा है ? हे पुत्र! तू बालक था तब तो तूने स्वयमेव हार पहिन लिया था। आज तेरा वह भुजबल और वह दर्प कहाँ है ? हे कुंभकर्ण! हमें दीनावस्थामें देखकर भी, तू वैरागियोंकी तरह, हमारी उपेक्षा कैसे कर रहा है ? रे पुत्र विभीषण! आजतक तू एक क्षणके लिए भी हमारी भक्तिसे विमुख नहीं हुआ था । आज देवोंने क्या तेरी बुद्धिको भ्रमित कर दिया है ? " इस विलापसे भी जब वे विचलित नहीं हुए तब यक्ष-किंकरोंने उन रूपधारियोंको माया-मय सिर काटकर उनके आगे डाल दिये । इससे भी जब वे विचलित नहीं हुए तब यक्ष-सेवकोंने माया रच विभीषण और कुंभकर्णके सिर काट रावणके आगे डाले और रावणका सिर उन दोनों के आगे डाला । रावणका सिर देख उन दोनोंको कुछ क्रोध हो आया । उसका कारण उनकी गुरुभक्ति थी; अल्प स्वत्व नहीं । परमार्थके ज्ञाता रावणने उस अन