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रावणका दिग्विजय।
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अपने ध्यानसे चलित नहीं हुए। इस लिए यक्षिणियाँ बहुत लज्जित हुई। कहा है कि 'तालिका नैक हस्तिका' ( कभी एक हाथसे ताली नहीं बजाती ।)
बादमें जंबूद्वीपपति यक्ष स्वयं वहाँ आकर कहने लगा:-" रे मुग्ध पुरुषो ! तुमने ऐसा काष्ठ-चेष्टित कार्य कैसे प्रारंभ किया है ? जान पड़ता है कि तुमको किसी अनाप्त पाखंडीने अकाल मृत्युपानेको यह पाखंडमय शिक्षा दी है। अतः अब ऐसे ध्यानका दुराग्रह छोड़ दो
और चले जाओ । यदि इच्छा हो तो मुझसे याचना करो, मैं तुम्हें वांछित दूँगा।" यक्षके वचनोंसे भी उन्होंने मौन त्याग नहीं किया। तब यक्ष क्रोध करके बोला:-" रे मूर्यो ! मेरे समान प्रत्यक्ष देवको छोड़ कर तुम दूसरोंका ध्यान कैसे कर रहे हो?" ऐसा कहने बाद यक्षने अपने वाण-व्यंतर सेवकोंको भ्रकुटीके इशारेसे आज्ञा की । सेवक किलकारियाँ करते हुए; विविध प्रकारके रूप धारण कर पर्वत-शिखर और बड़ी बड़ी शिलाएँ लाकर उनके आगे डालने लगे। कई सर्पका रूपधर, चंदनकी तरह, उनसे लिपटने लगे; कई सिंह बन उनके सामने गर्जना करने लगे और कई रीछ, बंदर, व्याघ्र, बिलाव आदिके स्वरूप बनाउनको डराने लगे। तोभी वे तीनों धीर क्षुब्ध नहीं हुए । फिर
१-अप्रमाणिक; जिसका वचन प्रमाण न हो ऐसा । २-व्यंतर 'जातिके देव ।