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जैन रामायण आठवाँ सर्ग ।
परीक्षा क्यों नहीं करली थी ? लोग जब शंका होती है, तब दिव्यादिसे परीक्षा करते हैं। मैं मंद भाग्या हूँ, सो मैं तो इस वनमें भी अपने कर्म भोगूंगी; परन्तु आपने जो कार्य किया है वह आपके विवेक और कुलके सर्वथा अयोग्य है । हे स्वामी ! जैसे दुर्जन लोगोंकी बातोंसे आपने मेरा त्याग कर दिया, वैसे ही दुष्टोंकी बातोंसे कहीं जिन-भाषित धर्मको मत छोड़ देना।'
इतना कहकर, सीता फिर मूञ्छित होकर गिर पड़ी। फिर सावधान होकर बोली:--" अरे ! राम मेरे विना जीवित कैसे रहेंगे ? हा हन्त ! मैं मारी गई । हे वत्स ! कृतान्त ! रामको कल्याण और लक्ष्मणको आशिष कहना। तेरा मार्ग निरुपद्रव पूरा हो । अब तू शीघ्र ही लौटकर, रामके पास जा ।"
सेनापति कृतान्त बड़ी कठिनतासे अपने मनको समझा सीताको वनमें छोड़, वापिस अयोध्याकी तरफ चला। जाते हुए सोचने लगा-“ रामकी वृत्ति सीतासे अत्यन्त विपरीत हो रही है, तो भी सीता रामपर इतनी भक्ति रखती हैं। सीता सती शिरोमणि हैं; महासति हैं।"