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जैन रामायण आठवाँ सर्ग ।
की यात्रा के बहाने सीताको वनमें ले जा । सीताकी ऐसी इच्छा भी है ।
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कृतान्तवदनने समेतशिखर लेजानेकी बात जाकर सीताको कही । सीता राजी होगई । कृतान्तवदन उनको रथमें बिठाकर ले चला ।
चलते समय सीताको अनेक अपशकुन हुए । तो भी सरलता के कारण वे शान्त होकर बैठी रहीं । वे बहुत दूर निकल गई । चलते हुए वे गंगासागर उतर कर, सिंह निनाद नामा वनमें पहुँचे । रथको वहीं खड़ा करके कृतान्तवदन कुछ विचार करने लगा । विचारते विचारते उसका - मुख म्लान होगया, उसके नेत्रों से आँसू गिरने लगे । यह देखकर, सीता बोलीं : - " हे सेनापति ! हृदयमें . बड़ा भारी शोकाघात हुआ हो, वैसे दुखी होकर तुम क्यों स्थिर हो रहे हो ? ”
कृतान्तवदनने उत्तर दिया: - " हे माता ! मैं दुर्वचन कैसे बोलूँ ? मैं सेवकपनसे दूषित हूँ । इसीलिए मुझको यह अकृत्य करना पड़ा है | देवी ! आप राक्षसके घर में रहीं । लोग आप पर अपवाद लगाते हैं । रामने इस अपवादसे - डरकर, आपको इस भयानक वनमें छोड़नेकी आज्ञा दी है। गुप्तचरोंने रामको आकर, आपके विषयमें लोग अप 'वादकी जो बातें कहते हैं वे बातें सुनाई । सुनकर राम आपका त्याग करने को तैयार हुए । लक्ष्मणको लोगोंपर