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रामने अति श्रेष्ठ प्रकारसे देवाचन कराया । फिर वे सीताको लेकर सपरिवार महेन्द्रोद्यानमें गये । वहाँपर बैठ कर आनंदके साथ रामने वसंतोत्सवको देखा । जिसमें अनेक नगरवासी क्रीडा कर रहे थे और जो अहंतकी पूजासे व्याप्त हो रहा था। उसी समय सीताका दाहिना नेत्र फड़का । उसने सशंक चित्त होकर रामसे नेत्र फड़कनेकी बात कही । रामने इस फड़कनेको अशुभ बताया। इसलिए सीता वोली:--" क्या मुझे राक्षस द्वीपमें रखकर भी दैवको अभीतक संतोप नहीं हुआ है ? क्या फिर निर्दय दैव आपके वियोगसे भी कोई अधिक दुःख देना चाहता है ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर ऐसे अशुभ दर्शकसंकेत क्यों हो रहे हैं ?"
रामने उत्तरदिया:-" हे देवी दुःख न करो क्यों कि___" अवश्यमेव भोक्तव्ये, कर्माधीने सुखासुखे ।”
( सुख और दुःख कर्माधीन हैं । ये प्राणियोंको अवश्य भोगने ही पड़ते हैं । ) इसलिए अपने मंदिरमें चलो। देवताओंकी पूजा करो । और सत्पात्रोंको दान दो । क्यों कि
"धर्मः शरणमापदि।" (आपत्तिमें धर्म ही एक शरण है।) सीता निज महलमें गईं। और प्रभुपूजन करनेमें और सत्पात्रको दान देनेमें रत होगई।