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जैन रामायण आठवाँ सर्ग /
सीतापर कलंक
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विजय, सुरदेव, मधुमान, पिंगल, शूलधर, काश्यप, काल और क्षेमनामा राजधानी के बड़े बड़े अधिकारी नगरीके यथार्थ वृत्तान्त जानने के लिए नियत थे । वे एक दिन रामके पास आये और वृक्षकी भाँति थर थर काँपने लगे । वे रामको कोई बात नहीं कह सके । क्योंकि राजतेज बड़ा दुःसह होता है | रामने कहा : – “ हे नगरीके महान अधिकारियो ! तुम्हें जो कुछ कहना हो वह कहो । तुम एकान्त हितवादी हो, इसलिए अभय हो । " रामके अभय वचन सुनकर, वे कुछ स्थिर हुए। उनमें से विजय नामका अधिकारी सबका प्रधान था वह बड़ी सावधानी के साथ इस तरह कहने लगा:- " हे स्वामी ! एक बात है; जिसका कहना बहुत ही आवश्यकीय है। यदि मैन कहूँगा तो स्वामीको उगनेवाला कहलाऊँगा । मगर वह है बहुत ही दुःश्रव । हे देव ! देवी सीतापर एक अपबाद आया है । वह दुर्घट है तो भी लोग उसको सीतापर घटित करते हैं । नीतिका वचन है कि जो बात युक्ति पूर्वक घटित होती हो, उसपर विद्वानोंको विश्वास करना चाहिए । लोग कहते हैं कि - रतिक्रीडाकी इच्छा से रावणने सीताका हरण किया । उनको अकेले अपने घरमें रक्खा । सीता बहुत समयतक उसके घरमें रहीं । सीता चाहे रावणसे रक्त रही हो, या विरक्त इससे क्या होता जाता है ?
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