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________________ ३७२ जैनं रामायण आठवाँ सर्ग। सीता तुम्हारी सेवाके कारण ही वनमें उस भाँतिके कष्टों-- को सहन कर सके थे।" लक्ष्मण सविनय बोले:-" हे माता ! वनमें आर्यबन्धु. राम पिताके समान और सीता आपकी तरह मेरा लालन पालन करते थे, इस लिए मैं तो वनमें भी बड़े सुखसे दिन निकालता था। मगर मेरी स्वेच्छाचारी दुर्ललित-दुर्च-. शाओंसे ही आर्यबन्धु रामकी लोगोंसे शत्रुता हुई, और उसीसे देवी सीताका हरण हुआ। उसके लिए मैं अब विशेष क्या कहूँ ? ( राम और सीताके ऊपर इतनी आपत्तियाँ आई उन सबका कारण मैं ही हूँ।) परन्तु हे माता !' आपके आशीर्वादसे भद्र राय अब शत्रु सागरको लाँघ कर,. परिवारके साथ सकुशल यहाँ आ पहुचे हैं।" तत्पश्चात एक प्यादेकी तरह रामके पास रहनेकी इच्छा रखनेवाले भरतने शहरमें बड़ा भारी उत्सव कराया। . भरतके हृदयमें दीक्षाकी प्रबल इच्छा होना। एक दिन भरतने रामको प्रणाम करके कहा:-" हे आर्य ! आपकी आज्ञासे मैंने इतने समय तक राज्य किया; अब आप इसको ग्रहण कीमिए। इस राज्य करनेके लिए यदि आपकी आज्ञासे मैं विवश न होगया होता तो, मैं उसी समय पिताजीके साथ दीक्षा ले लेता । मेरा हृदय संसारसे बहुत ही उद्विग्न हो रहा है । अतः अब
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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