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________________ सीताको रामचन्द्रका त्यागना। २६९ ~mmmmmmmmmmmmm इतना कह अपराजिता हा वत्स ! हा वत्स ! कर, करुण स्वरमें रुदन करने लगी । सुमित्रा भी रोने लगी। नारदने उनको ढारस बंधाते हुए कहा:-" दुखी मत होओ। मैं रामके पास जाकर उनको यहाँ पर ले आऊँगा।" इस तरह उनको ढारस बँधाकर, नारद आकाशमार्गसे लंका रामके पास गये । रामने सत्कारपूर्वक उनको आसन देकर आगमनका कारण पूछा । नारदने उनकी माताओंका सारा दुःख कह सुनाया । सुनकर राम भी दुखी हुए । फिर उन्होंने विभीषणको कहा:-" हम तुम्हारी भक्तिसे प्रसन्न होकर बहुत दिनोंतक तुम्हारे अतिथि रहे। मगर अब तुम हमें विदा करोताकी हम अपनी पुत्रवियोगाकुलमाताओंके पास उनके प्राणपखेरु उड़ जायँ इसके पहिले ही जाकर, उनकी पद धूलि अपने मस्तकपर चढ़ावें और उनके व्याकुल हृदयोंको शान्त करें।" . . विभीषणने सविनय उत्तर दिया:--" हे स्वामिन् ! पन्द्रह दिनतक आप और यहीं रहिए, ताकी इस अवधीमें मैं अयोध्याको, अपने यहाँके कारीगरोंको भेजकर, रमणीय कनका हूँ।" रामने यह बात स्वीकार की । विभीषणने अपने विद्याधर कारीगरोंको भेज कर, अयोध्याको स्वर्गपुरीके समान सुंदर बना दिया । नारद उसी समय रामसे विदा होकर अयोध्या गये और कौशल्या आदिको रामके शीघ्र ही आनके समाचार सुनाये।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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