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जैन रामायण आठवाँ सर्ग ।
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जीवनसे मृत्युको अच्छा समझ, मरनेका संकल्पकर, विभीषणने कमरसे कटार निकालकर पेटमें धौंसना चाहा। रामने तत्काल ही उसको पकड़ लिया और समझायाः-"हे वीभीषण ! वीरोचित रणस्थलमें वीरगतिको पाये हुए अपने बन्धु रावणके लिए वृथा चिन्ता न करो । जिस वीरसे युद्ध करनेमें देवता भी शंका करते थे, वह वीर आज अपनी वीरता दिखा, अपनी कीर्ति स्थापनकर, वीर गतिको पाया है। ऐसे बन्धुके लिए शोक किस कामका है ? अतः अब रोना छोड़ो और रावणकी मृत्युक्रियाएँ करो।"
तत्पश्चात महात्मा पद्मनाभने-रामने-कुंभकर्ण, इन्द्रजीत और मेघवाहन आदि, कैदमें, पड़े हुए राक्षस वीरोंको छोड़ दिया।
फिर कुंभकरण, विभीषण, इन्द्रजीत मेघवाहन, मंदोदरी आदि संबंधियोंने एकत्रित होकर, अश्रुपात करते. हुए गोशीर्ष चंदनकी, रावणके लिए, चिता तैयार की, और कपूर व अगरु मिश्रित प्रज्वलित अग्निसे रावणके शरीरका अग्निसंस्कार किया।
रामने भी पद्मसरोवरमें जाकर स्नान किया और अपने उष्ण जलद्वारा रावणको जलांजुली समर्पण की। : राम और लक्ष्मणने मधुर शब्दोंद्वारा-जो ऐसे प्रतीत. होते थे मानो अमृत बरस रहा है-कुंभकर्णादिको कहाः