________________
३५८
जैन रामायण सातवाँ सर्ग !
उनको चेत हुआ। उस समय उन्होंने नियम लिया किजिस समय मुझे राम और लक्ष्मणके मृत्यु-समाचार मिले उसी समयसे मेरे ' अनशन' व्रत होवे । __ सीताका नियम सुनकर रावण चमका । वह सोचने लगा--" रामके साथ इसका स्वाभाविक प्रेम है अत: इसके साथ अनुराग करनेकी इच्छा रखना । सूखी भूमिमें कमल उगानेकी इच्छाके समान व्यर्थ है । मैंने यह अच्छा नहीं किया कि-विभीषणके कथनकी अवज्ञा की । अफ्सोस! मैंने अपने कुलको कलंकित किया और नेक सलाह देनेवाले मंत्रियोंका अपमान किया । मगर अब क्या करूँ ? इस समय सीताको छोड़ देनेसे तो अपयश होगा। लोग कहेंगे कि-रामसे डरकर रावणने सीताको छोड़ दिया है । बहतर यह होगा कि-राम और लक्ष्मणको यहाँ पर पकड़ लाऊँ और फिर सीताको उनके सिपुर्द कर उन्हें छोड़ दूं। इससे संसारमें मेरा यश होगा और मैं धर्मात्मा. समझा जाऊँगा ।" इस भाँति सोचता हुआ रावण अपने महलमें गया । नाना भाँतिके विचारोंमें उसने रात बिताई।
प्रातःकाल होते ही रावण युद्ध करनेके लिए रवाना हुआ । चलते समय उसको अनेक अपशकुन हुए; परन्तु उसने किसीकी भी परवाह नहीं की। राम और रावणकी सेनाके बीचमें फिरसे युद्ध आरंभ हुआ। सुभटोंकी हुंकारसे, और उनके ताल ठोकनेसे दिग्गज काँप उठे।