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जैन रामायण सातवाँ सर्ग।
निवेदन किया:-“हे प्रभो ! रावण जबतक बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध नहीं कर लेता है, तब तक उसको साध्य करलेना चाहिए-उसको विवशकर पराजितकर देना चाहिए-विद्याके सिद्ध होजानेपर उसको जीतना असाध्य हो जायगा।"
रामने हँसकर उत्तर दिया:--" शान्त होकर ध्यान करनेके लिए बैठे हुए रावणपर मैं कैसे आक्रमण करूँ ?' मैं उसके समान छली नहीं हूँ।"
रामके वचन सुनकर अंगदादि कपि वीर लंकापति रावणकी साधना भ्रष्ट करनेके लिए शान्तिनाथके मंदिरमें गये । वे उद्धता पूर्वक रावणको नाना भाँतिके कष्ट देने लगे; परन्तु रावण तिलमात्र भी अपने ध्यानसे विचलित नहीं हुआ। अंगदने मंदोदरीकी चोटी पकड़कर रावणको कहा:-"रे रावण ! शरण विहीन हो, भयभीत बन, तूने यह क्या पाखंड रचा है ? तूने तो हमारे स्वानीकी अनुपस्थितिमें सति सीताका हरण किया था; परन्तु देख, देख, हम तेरी आँखोंके सामने ही तेरी स्त्रीका हरण करते हैं।" रावण कुछ न बोला। अंगदका क्रोध भभक उठा। उसने मंदोदरीको घसीटा । वह बिचारी अनाथ टीटोड़ीकी भाँति करुण स्वरमें रुदन करने लगी। तथापिध्यान लीन रावण अपने ध्यानसे चलायमान न हुआ।