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________________ ३४६ जैन रामायण सातवाँ सर्ग। आपके बंधुसे उस जलका माहात्म्य पूछा । उन्होंने कहा:" एक बार विंध्य नामा सार्थवाह-व्यापारी-गजपुरसे यहाँ आया था । उसके साथ एक भैसा था । उसपर बहुत बोझा लदा हुआ था । बोझेको न सह सकने के कारण वहः मार्गमें गिर गया । उसमें उठनेकी भी शक्ति न रही। विंध्या उसको वहीं छोड़ कर अपने डेरे पर चला गया । नगरके लोग उसके सिर पर पैर रख कर जाने लगे। उपद्रवसे. पीडित भैंसा अन्तमें मर गया । अकाम निर्जराके योगसे मर कर, वह श्वेतंकर नगरका राजा, पवनपुत्रक नामा वायुकुमार देव हुआ। अवधिज्ञान द्वारा उसने अपनी कष्टकारी मृत्युको देखा । उसको क्रोध आया । इससे उसने अयोध्या और अयोध्याके राज्यमें नानाप्रकारकी व्याधियाँ उत्पन्न कर दीं। सारे लोग व्याधियोंसे पीडित होने लगे। द्रोणमेघ नामा एक मेरे मामा थे । वे भी मेरे ही राज्य में रहते थे; तो भी उनके अधिकारवाले प्रांतमें, या उनके घरमें किसी प्रकारकी व्याधि नहीं हुई । मैंने उनसे व्याधि न होनेका कारण पूछा । उन्होंने उत्तर दियाः. “ मेरी प्रियंकरा नामा राणी पहिले अत्यंत रुग्ण रहती थी। कुछ कालबाद उसके गर्भ रहा । गर्भके प्रभावसे वह रोम-मुक्त होगई। दिन पूरे होनेपर उसने एक कन्याको. जन्म दिया। उसका नाम विशल्या रक्खा गया । सारे देशकी तरह मेरे प्रान्तमें भी रोग उत्पन्न हुआ। विशल्या
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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