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________________ जैन रामायण सातवाँ सर्ग | प्राप्त हुए हैं । हे पृथ्वी ! मुझपर कृपा कर, अपने गर्भ में मुझको जगह दे । तू फट जा, जिससे मैं तुझमें समाजाऊँ । हे हृदय ! तू दो भागों में विभक्त हो जा; प्राणोंको निकलनेके लिए मार्ग दे दे । " सीताकी ऐसी स्थिति देख कर, एक विद्याधरीको दया आई । उसने अवलोकिनी विद्याद्वारा देख कर कहा:"हे देवी! कल सबेरे ही तुम्हारे देवर लक्ष्मण, अक्षतांग हो जायँगे वे अच्छे हो जायँगे । फिर वे और राम यहाँ आकर तुमको आनंदित करेंगे । " विद्याधरीकी बात सुनकर, सीताको कुछ संतोष हुआ । वे चक्रवाकीकी भाँति, निर्निमेषनेत्रसे सूर्योदयकी प्रतीक्षा करने लगीं । रावणका अपने बन्धुओंके लिए विलाप । “आज मैंने लक्ष्मणको मारा है।" यह सोच कर, रावणको थोड़ी देर के लिए आनंद हुआ । परन्तु दूसरे ही क्षण उसका आनंद दुःखमें परिवर्तन हो गया वह अपने भाई, पुत्रों और मित्रोंके बंधनका स्मरण कर रुदन करने लगा -" हा वत्स ! कुंभकर्ण ! तू मेरी दूसरी आत्मा था; हा पुत्र इन्द्रजीत ! हा मेघवाहन ! तुम दोनों मेरे द्वितीय बाहुयुगल थे | हा जंबूमाली आदिवीरो ! मित्रो ! तुम मेरे रूपांतर थे । अरे तुम तो गजेन्द्रोंके समान अप्राप्त बंधन थे । तुम बंधन में कैसे पड़ गये ! " इस प्रकार रावण स्मरण कर रुदन करता हुआ बार बार पृथ्वीपर गिरता ३४४
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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