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जैन रामायण प्रथम सर्ग ।
महावीर्यवान, विजयसिंह आयुधों को उछालता हुआ, किष्किंधीराजाको वध करनेके लिए उसके पास जा खड़ा हुआ । यह देखकर सुकेश आदि विद्याधर किष्किंधी की ओरसे और कई अन्य विद्याधर विजयसिंहकी ओरसे परस्पर युद्ध करनेको खड़े होगये। हाथियोंके दांतोंके संघसे आकाशमें तिनखे उड़ने लगे; सवारोंके भालोंके मेलसे बिजलियोंसी कड़क होने लगी; महारथियोंकी धनुष- टंकारसें आकाश गूंजने लगा; और खड्डोंकी मारसे पैदल सिपाहि-योंकी लाशोंका ढेर लगने लगा । इस तरह कल्पान्त कालकी भाँति युद्ध होने लगा । थोड़े ही समय में सारी: भूमि लोहू से पट गई। थोड़ी देरके युद्ध बाद किष्किंधी के छोटे भाई 'अंकने' एक बाणसे, वृक्षसे फलको गिराते हैं ऐसे, विजयसिंहका सिर धड़से जुदा कर दिया । यह देख विजयसिंह पक्षके विद्याधर घबरा गये ।
' निर्नाथानां कुतः शौर्य, हतं सैन्यं ह्यनायकं ।
( स्वामी के विना शौर्य कैसे रह सकता है ? नायक - विनाका सैन्य मरे समान ही होता है ।
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युद्धमें जीत, साक्षात शरीरधारिणी जयलक्ष्मी के समान श्रीमालाको ले, किष्किंधी अपने सब सहायकों और सैनि कोंसहित किष्किंधा गया । अकस्मात वज्र गिरता है, वैसे ही पुत्रवधके समाचार सुन अशनिवेग, किष्किंधापर चढ़: आया और नदी जैसे - जलका पूर होता है तब-नगरको