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________________ ३४० जैन रामायण सातवाँ सर्ग। wwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmm..mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmww...mmm अथवा तू भी मर । क्योंकि तुझको भी तो मुझे मारना ही है । तेरा आश्रित यह विभीषण इस समय रंक होकर बिचारा मेरे सामने खड़ा है।" फिर उसने उत्पात वज्रतुल्य उस शक्तिका लक्ष्मणपर प्रहार किया। उस शक्तिको लक्ष्मणपर आती देख, सुग्रीव, हनुमान, भामंडल आदि वीरोंने, अपने नाना भाँतिके अस्त्रोंद्वारा, उसको रोकना-विफल करना चाहा; परन्तु वह किसीकी बाधा न मान, सबकी अवज्ञा कर, जैसे कि उन्मत्त हाथी अंकुशकी बाधाः नहीं मानता है-समुद्र में जैसे वडवानल लग जाती है, वैसे ही, वह लक्ष्मणके हृदयमें लग गई। उसके आघातसे लक्ष्मण पृथ्वीपर गिरकर मूर्छित होगये । वानरसेनामें चहुँ ओर हाहाकार मच गया । राम क्रुद्ध हो, पंचानन रथमें बैठ रावणको मारनेकी इच्छाकर युद्ध करने लगे। क्षणवारमें उन्होंने रावणके रथको तोड़ दिया। रावण दूसरे रथमें बैठा । जगतम अद्वितीय पराक्रमी रामने इसी भाँति पाँचवार रावणके रथको तोड़दिया। रावणने सोचा-राम स्वयमेव बन्धु विरहसे मर जायँगे फिर मैं वृथा क्यों युद्ध करूँ ! यह सोच, रावण लंकामें चला गया । शोकाकुल राम लक्ष्मणकी ओर चले । उसी समय सूर्य भी अस्त होगया; मानो बह भी रामके शोकसे आतुर हो, आकाशमंडलमें न ठहर सका।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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