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'३३४ जैन रामायण सातवाँ सर्ग। ~~~ ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ निकल कर उड़ गया; जैसे कि पिंजरा खुला पाकर पक्षी उड़ जाता है । मेघवाहन और इन्द्रजीतसे युद्ध कर, सुग्रीव
और भामंडलको छुड़ानेके लिए, विभीषण रथमें बैठकर रवाना हुआ। विभीषणको आते देख, इन्द्रजीत सोचने लगा-विभीषण अपने पिताके अनुज बंधु होकर हमारे साथ युद्ध करनेको आ रहे हैं। ये अपने चचा हैं । चचाके साथ युद्ध कैसे करें ? क्यों कि ये अपने पिताके समान हैं इस लिए हमें यहाँसे चला जाना चाहिए ।
'न हीःपूज्याद्धि बिभ्यताम् ।' ( अपने बड़ों और पूज्योंके सामने पीछे हटजानेमेंचले जानेमें- कुछ लज्जा नहीं है।) इस नागपाशमें बँधे हुए शत्रु अवश्यमेव मर जायँगे । अतः हम इनको यहीं छोड़कर चले जावें, जिससे काका न अपने पास आयेंगे और न हमें उनसे युद्ध ही करना पड़ेगा। ऐसा सोच, मेघवाहन सहित इन्द्रजीत वहाँसे चला गया। विभीषण भामंडल और सुग्रीवको देखता हुआ वहीं खड़ा रह गया। राम और लक्ष्मण भी चिन्तासे म्लानमुखी बनकर वहीं चुपचाप खड़े रहे। जैसे कि हिमसे आच्छादित सूर्य, चंद्रका शरीर होजाता है। .. उस समय रामचंद्रने सुवर्ण निकायके देव महालोचनका-जिसने रामको पहिले वरदान दिया था-स्मरण किया। वह देव अवधिज्ञानसे उसवृत्तान्तको जानकर वहाँ